*पाक परस्त विदेशी कंपनियों को देश से निकालो*
*राष्ट्र-चिंतन*
*ह्यूडंई-कैया को इस्ट इंडिया कंपनी मत बनाओ*
*आचार्य श्री विष्णुगुप्त*
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ह्यूडंई-कैया को इस्ट इंडिया कंपनी मत बनाओ। इन्हें भारत की संप्रभुत्ता से खेलने की छूट मत दो। विदेशी कंपनियां भारत में व्यापार करने आयी हैं, इन्हें व्यापार तक ही सीमित रखो। ह्यूंडई और कैया की पाकिस्तान परस्ती और कश्मीर प्रकरण ने देश की संप्रभुत्ता को न केवल ललकारा है बल्कि एक गंभीर चुनौती भी दी है। यही कारण है कि देश में इसकी गंभीर प्रतिक्रिया हुई है और ह्यूडंई-कैया जैसी वे सभी विदेशी कंपिनियां जो भारत की संप्रभुत्ता का हनन करती हैं पर प्रतिकात्मक नहीं बल्कि कठोर कार्रवाई की अपेक्षा हुई है। ह्यूडई-कैया के खिलाफ गंभीर प्रतिक्रिया होनी ही चाहिए थी, अगर गंभीर प्रतिक्रिया नहीं होती तो फिर भारत सरकार भी नहीं जागती, भारत सरकार नहीं जागती तो फिर ह्यूडई-कैया कंपनियों को अपनी गलती का अहसास भी नहीं होता, भारत सरकार द्वारा उन्हें कार्रवाई का भी डर नहीं होता और वे आगे भी इसी तरह धूर्तता करती रहतीं।
ह्यूंडई-कैया जैसी विेदेशी कंपनियां भारत में व्यापार करने आती हैं, भारत के व्यापार का भरपूर दोहन करती हैं और फिर भारत को ही आंख दिखाती हैं, भारत की एकता-अंखडता में मट्ठा डालती हैं। इनकी ऐसी धूर्तता कब और कैसे समाप्त होगी? यह एक यक्ष प्रश्न है। वास्तव में हमनें रोजगार सृजन और अर्थव्यवस्था मजबूत होने के दृष्टिकोण से विदेशी कंपनियों को सिर आंखों पर बैठा रखा है, उन्हें हमने मनमानी करने की छूट दे रखी है, उनकी शर्तो का हम गुलाम हो गये हैं। जब ऐसी स्थिति होगी तब उनकी मनमानी बढेगी और खुशफहमी भी बढ़ेगी। रोजगार और अर्थव्यवस्था से भी बहुत जरूरी है देश की संप्रभुत्ता और देश की एकता-अखंडता। हमारे लिए देश की एकता और अखंडता सर्वोपरि है। हमें हर स्थिति में विदेशी कपंनियों को भारत की संप्रभुत्ता का पाठ पढ़ाना ही होगा। ह्यूडंई और कैया जैसी विदेशी कंपनियों को इस्ट इंडिया कपंनी बनने नहीं दिया जाना चाहिए।
यह सीधे तौर पर पाकिस्तान परस्ती है, पाकिस्तान भक्ति है और भारत विरोध का एक घिनौना करतूत है। पाकिस्तान हमारा दुश्मन है। कश्मीर हमारा अभिन्न अंग है। कश्मीर के विलय पर राजा हरि सिंह ने दबावहीन हस्ताक्षर किये थे। भारत की सेना ने प्राणों की बाजी लगा कर कश्मीर की रक्षा की थी और पाकिस्तानी हमलावरों को खदेड़ा था। जवाहरलाल नेहरू की मूर्खता के कारण कश्मीर को पाकिस्तान हमलावरों से भारतीय सेना मुक्त नहीं करा पायी थी। पाकिस्तान ने आधे कश्मीर पर कब्जा कर रखा है। कश्मीर पर पाकिस्तान का अवैध कब्जा है। गुलाम कश्मीर जिस पर पाकिस्तान का कब्जा है वहां के लोग पाकिस्तान के खिलाफ विद्रोह कर रहे हैं, पाकिस्तान से अलग होने की मांग कर रहे हैं, गुलाम कश्मीर के लोग पाकिस्तान के साथ किसी भी परिस्थिति में रहना नहीं चाहते हैं, गुलाम कश्मीर के लोगों को बलपूर्वक और पुलिस-सेना के उत्पीड़न के माध्यम से पाकिस्तान की संप्रभुत्ता के अंदर रखा जा रहा है। सच तो यह है कि गुलाम कश्मीर के लोग भारत के साथ ही रहना चाहते हैं। ह्यूडंई-कैया जैसी विदेशी कंपनियां इस सच्चाई को क्यों नहीं स्वीकार करती हैं? ह्यूडंई-कैया जैसी कंपनियां गुलाम कश्मीर में पाकिस्तान के अत्याचारों और दमन और उत्पीड़न की हिंसक कार्रवाइयों पर संज्ञान क्यों नहीं लेती हैं? पाकिस्तान अपने यहां ही बलूच आबादी का नामोनिशान मिटाने पर तुली हुई है, इस पर संज्ञान लेने की जरूरत है।
विदेशी कपंनियां हदें पार कर रही हैं। अमेजन कभी भारत की संस्कृति का उपहास उड़ाने वाली वस्तुएं बेचता है तो कभी फेसबुक और ट्विटर जैसी शोसल साइडें भारत की संप्रभुत्ता का विनाश करती हैं, भारत के कानूनों को मानने से इनकार कर देती हैं। गूगल कभी भारत का गलत और विनाशकारी नक्शा दिखा देता है। मीडिया विदेशी कंपनी बीबीसी बार-बार भारत की संप्रभुत्ता की कब्र खोदती हैं। हदें पार करने के बावजूद भी इन्हें शर्म नहीं आती है, इन्हें कोई पछतावा नहीं होता है, इन्हें कोई डर-भय नहीं होता है, व्यापार खोने की भी चिंता इन्हें नहीं होती है। आखिर उन्हें संप्रभुत्ता हनन के बाद भी कोई डर-भय क्यों नहीं होता है? व्यापार खोने की कोई चिंता क्यों नहीं होती है? वास्तव में उन्हें यह मालूम है कि उनका कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है, उनका कुछ भी हानि नहीं होनी है, उनका व्यापार ऐसे ही चलता रहेगा, उन पर भारत के कानून असरहीन ही साबित होंगे। अगर भारतीय कानूनों की कोई वीरता उठी भी तो वे उत्पीड़न और भेदभाव का प्रश्न उछाल देंगे, प्रतिस्पद्र्धा हनन की बात उठा देंगे। वल्र्ड ट्रेड आर्गोनाइजेशन की संहिताएं उनके पक्ष में खड़ी हैं। जिन देशों ने वल्र्ड टेªड आर्गोनाइजेशन की संहिताओं पर हस्ताक्षर किये हैं वे देश वल्र्ड ट्रेड आर्गोनाइजेशन की संहिताओं का पालन करने के लिए बाध्य हैं। संहिताओं के तहत भय मुक्त और दबाव मुक्त व्यापार के अवसर देने की बाध्यता है। पर जब कोई कंपनी सीधे तौर पर कानून व्यवस्था और संप्रभुत्ता हनन की दोषी होती है तो फिर ऐसी करतूत के खिलाफ स्थानीय कानून और स्थानीय प्रशासन की संहिताएं ही प्रमुख होती है। स्थानीय संहिताएं और प्रशासन की संहिताएं ऐसी कंपनियों का दमन कर सकती हैं। अमेरिका कहता है कि वह अंतर्राष्ट्रीय कानूनों को तभी स्वीकार करेगा जब अंतर्राष्ट्रीय नियम कानून उनके कानूनों की कसौटी पर खरा उतरतें हों। अमेरिका या यूरोप में विदेशी कपंनियों द्वारा संप्रभुत्ता हनन की करतूत सोची भी नहीं जा सकती है। ऐसा कभी नहीं हो सकता है कि कोई कपंनी अमेरिका और यूरोप में व्यापार कर तिजोरी भी भरे और अमेरिका-यूरोप की संप्रभुत्ता को भी रौंदें।
चीन इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। चीन वल्र्ड ट्रेड आर्गोनाइजेशन की संहिता के घेरे में जरूर है पर वह अपने कानून और अपनी संप्रभुत्ता को ही सर्वश्रेष्ठ मानता है। चीन ऐसे किसी भी व्यापारिक संस्थान को अपने यहां आने और व्यापार करने की अनुमति ही नहीं देता है जो उसकी तानाशाही को नहीं मानता है और लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति अपना झुकाव प्रदर्शित करता है। चीन की तानाशाही को मानना अनिवार्य शर्त होती है। चीन की तानाशाही विभत्स है, हिंसक है और अमानवीय है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रा नहीं है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थक या तो हिंसा के शिकार होते हैं या फिर जेलों में सड़ा दिये जाते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि चीन में फेसबुक और ट्विटर और यूटृयूब जैसी कंपनियों की घुसपैठ नहीं है। फेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर प्रतिबंधित होने के कारण चीन में व्यापार नहीं कर सकती हैं। अगर ह्यूडंई और कैया जैसी किसी कंपनी ने चीन की संप्रभुत्ता पर प्रश्न खड़ा करती तो फिर चीन उसकी फैक्टरी पर ताला जड़ देता और उसके मालिकों को सीधे जेल में डाल देता। क्या आपने तिब्बत का प्रश्न उठाते किसी चीन में व्यापार करने वाली कपंनियों को देखा और सुना है?
इस्ट इंडिया कंपनी का सबक समाने है। कभी इस्ट इंडिया कंपनी भारत में व्यापार करने आयी थी। इस्ट इंडिया कंपनी को ह्यूडंई और कैया जैसी कंपनियों की तरह छूट मिलती चली गयी। एक दिन ऐसा आया जब इस्ट इंडिया कंपनी खुद भारत का भाग्य विधाता बन गयी और भारत को गुलाम बना दी । भारत ने गुलामी की कितनी बड़ी कीमत चुकायी थी, यह भी मालूम है। हजारों-लाखों बलिदान हुए फिर भारत आजाद हुआ। ह्यूडंई और कैया जैसी विदेशी कंपनियां भारत को अब गुलाम तो नहीं बना सकती हैं पर भारत में विभिन्नता में एकता के सिद्धांत का हनन जरूर करा सकती हैं, भारत में विद्रोह की जिंगारी जरूर भड़का सकती हैं। ऐसे ही भारत को तोड़ने के लिए देश में हजारों संगठन और आयातित संस्कृति पहले से ही सक्रिय है।
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