भक्ति का फल सुख-सुविधा प्राप्त करना नहीं और न ही समस्याओं का समाधान है, ये तो प्रेमानन्द में डूबने का नाम हैः ब्रह्मचारी सच्चिदानन्द
प्रेम कैसा हो यह कला गोपियों और विदुर से सीखिये
रांची : परमहंस योगानन्द जी ने अपनी पुस्तक योगीकथामृत के ‘मेरे गुरु के आश्रम में मेरी कालावधि’ अध्याय में लिखा है कि युक्तेश्वर गिरि अगर चाहते तो एक महान योद्धा व चक्रवर्ती सम्राट हो सकते थे, लेकिन वे महान योद्धा व चक्रवर्ती सम्राट बनने के बजाय अपने आंतरिक दुर्ग यानी अहंकार और क्रोध को ध्वस्त करने पर ही ध्यान दिया, क्योंकि अहंकार और क्रोध को जीत पाना किसी के लिए भी सामान्य नहीं हैं। ये बातें आज योगदा सत्संग आश्रम में आयोजित रविवारीय सत्संग को संबोधित करते हुए योगदा भक्तों को ब्रह्मचारी सच्चिदानन्द ने कही।
उन्होंने कहा कि हमारे अंदर छुपे अहंकार और क्रोध को अपने कर्म के बंधन को ध्वस्त कर ही विजय पाया जा सकता है। उन्होंने कहा हमेशा याद रखें कि युग अनन्त और जीवन छोटा है। उन्होंने कहा कि मनुष्य के तीन ही लक्ष्य है – पहला अस्तित्व, दूसरा चेतना और तीसरा आनन्द। उन्होंने कहा कि श्रद्धा, हृदय का स्वाभाविक प्रेम है, यह प्रेम सिर्फ देना सीखाता है, लेना नहीं।
उन्होंने कहा कि वेद कहता है कि ईश्वर आनन्दमय है। उक्त ईश्वर को भूख व प्यास नहीं लगती। जीव रुप पक्षी विषय रुपी फल खाते हैं, उसके बाद भी वे दुर्बल ही रहते हैं, जबकि शिवरुपी पक्षी विषय रुपी फल नहीं खाते, फिर भी वे हमेशा पुष्ट रहते हैं। उन्होंने इस पर एक बहुत ही सुंदर दृष्टांत दिया। उन्होंने कहा कि मां यशोदा, बालकृष्ण को बार-बार कहती है कि वो माखन-चोरी नहीं करें। फिर भी बालकृष्ण माखनचोरी करते हैं। वे अपनी मां को कहते भी हैं कि उनकी माखनचोरी, चोरी के लिए नहीं हैं, बल्कि गोपियों के प्रेम को समझने की है।
उन्होंने ईश्वरीय प्रेम की महत्ता को और सुंदर ढंग से समझाते हुए कहा कि भगवान श्रीकृष्ण चाहते तो वे दुर्योधन के यहां बने छप्पन प्रकार के भोग को ग्रहण कर सकते थे। लेकिन उन्होने झोपड़ी में रहनेवाले विदुर के यहां का सामान्य भोजन करना उससे ज्यादा जरुरी समझा। विदुर की पत्नी तो हमेशा यही चाहती थी कि भगवान श्रीकृष्ण हमेशा उनके यहां भोजन करें। दरअसल भगवानश्रीकृष्ण विदुर के अंदर छुपे ईश्वरीय प्रेम को समझते थे, इसलिए वे विदुर के यहां का सामान्य भोजन ग्रहण करने में ज्यादा रुचि दिखाई।
उन्होंने कहा कि प्रेम कैसा होना चाहिए तो गोपियों और विदुर से सीखिये। उन्होनें कहा कि अगर आप ईश्वरीय भक्ति में लीन हैं तो इसका मतलब यह भी नहीं कि आपके जीवन में दुख आयेगा ही नहीं। भक्ति का फल सुख-सुविधा प्राप्त करना नहीं और न ही समस्याओं का समाधान है। लेकिन यह भी सही है कि जब व्यक्ति ईश्वरीय प्रेम में होता हैं तो उसके जीवन में समस्याएं, बाधा नहीं बनती, बल्कि प्रेरणास्रोत हो जाती है।
ब्रह्मचारी सच्चिदानन्द ने कहा कि हृदय में जागृत ईश्वर के प्रति प्रेम हमारे अंदर सारे विकारों को नष्ट कर देता है। उन्होंने इसी पर राबर्ट की कहानी सुनाई जो अपने परमहंस योगानन्द जी के पास जाकर कहा कि वो उन्हें अपना गुरु बनाना चाहता है, लेकिन परमहंस योगानन्द ने कहा कि वो उनका गुरु नहीं, बल्कि उसके गुरु रमन महर्षि हैं। वो बाद में 1947 में रमन महर्षि से मिलता भी है। इसका मतलब है कि जब प्रेम सही मायनों में विकसित होता है तो वो सद्गुरु के पास मनुष्य को ले ही जाता है, इसमें कोई किन्तु-परन्तु नहीं।
उन्होंने कहा कि सत्य को जानने की इच्छा रखनेवाले लोग सत्य के पास एक न एक दिन पहुंच ही जायेंगे। बशर्ते कि व्यक्ति अपने जीवन के महालक्ष्य को विस्मृत होने नहीं दें। उन्होंने इसी दौरान शरीर के अंदर उपस्थित विभिन्न चक्रों के माध्यम से ओम् ध्वनि को कैसे सुना जा सकता है, उसकी ओर भी लोगों का ध्यान आकृष्ट कराया तथा प्रेम और सत्य की बारीकियों से लोगों का साक्षात्कार भी कराया।
- लेखक कृष्ण बिहारी मिश्र, बिहार-झारखण्ड के वरिष्ठ पत्रकार एवं विद्रोही 24 के संपादक हैं।