भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) का आलोचनात्मक विश्लेषण: नेतृत्व, ईमानदारी और दृष्टिकोण की चुनौतियाँ



डॉ उमेश शर्मा 

भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS), जिसे कभी भारत की “इस्पाती रीढ़” कहा जाता था, पिछले कुछ दशकों में अपनी प्रभावशीलता, ईमानदारी और जन-धारणा में लगातार गिरावट का सामना कर रही है। नीतियों के कार्यान्वयन और जनकल्याण के प्रशासन की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाने वाली यह सेवा आज प्रशासनिक दक्षता, राष्ट्रीय दृष्टिकोण और सेवा-भाव की कमी के कारण आलोचना का विषय बन चुकी है। इसके विपरीत, यह सेवा अब भ्रष्टाचार, दिखावे और अहंकार में उलझी हुई प्रतीत होती है।

1. *प्रशासनिक कौशल की कमी*

बहुत से IAS अधिकारी एक कठिन परीक्षा प्रक्रिया के माध्यम से सेवा में प्रवेश करते हैं, जो शैक्षणिक बुद्धिमत्ता को तो परखती है, परंतु व्यवहारिक प्रशासनिक क्षमता या प्रबंधन कौशल का परीक्षण नहीं करती। यद्यपि कुछ अधिकारी समय के साथ प्रशासनिक विशेषज्ञता विकसित कर लेते हैं, फिर भी एक बड़ा वर्ग नेतृत्व और संगठन कौशल की मूलभूत समझ से वंचित रहता है। निर्णय-निर्धारण की प्रक्रिया अक्सर धीमी, जोखिम-टालने वाली और अत्यधिक नौकरशाही होती है, जिससे नवाचार और प्रभावी सेवा-प्रदान बाधित होता है। लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी (LBSNAA) का प्रशिक्षण, यद्यपि प्रतिष्ठित है, परंतु सैद्धांतिक ज्ञान और ज़मीनी हकीकत के बीच की खाई को पूरी तरह नहीं भर पाता।

2. *राष्ट्रीय दृष्टिकोण का अभाव*

IAS को एक ऐसी सेवा के रूप में कल्पित किया गया था जो संविधानिक मूल्यों की रक्षा करते हुए क्षेत्रीय संतुलन के साथ राष्ट्र के विकास को सुनिश्चित करे। किंतु व्यावहारिक रूप में, कई अधिकारी संकीर्ण दृष्टिकोण और व्यक्तिगत या क्षेत्रीय हितों से प्रेरित होकर कार्य करते हैं, न कि राष्ट्रीय प्राथमिकताओं से। बार-बार तबादले और राजनीतिक हस्तक्षेप उनकी दीर्घकालिक योजनाओं को कल्पना और क्रियान्वयन से वंचित रखते हैं। यह दृष्टिकोणहीनता असंगठित विकास, गलत नीतियों और गरीबी, बेरोजगारी, पर्यावरण क्षरण जैसी संरचनात्मक समस्याओं के समाधान में विफलता के रूप में स्पष्ट होती है।

3. *राष्ट्रीय चरित्र और प्रतिबद्धता की कमजोरी*

आजकल एक बड़ा वर्ग IAS सेवा को राष्ट्र-निर्माण का माध्यम न मानकर एक करियर सीढ़ी के रूप में देखता है। वह कर्तव्य, बलिदान और राष्ट्रवाद की भावना, जिसने कभी इस सेवा को परिभाषित किया था, अब मंद पड़ती जा रही है। नागरिकों के बीच यह धारणा बढ़ती जा रही है कि सिविल सेवा में लगे अधिकारी अब जनसेवा के बजाय भत्तों, विदेशी पोस्टिंग्स और सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्तियों को अधिक प्राथमिकता देते हैं।

4. *भ्रष्टाचार और नैतिक पतन*

IAS के भीतर भ्रष्टाचार अब कोई अपवाद नहीं रहा—यह एक प्रणालीगत समस्या के रूप में देखा जा रहा है। अच्छे वेतन और विशेषाधिकारों के बावजूद, कई अधिकारी सार्वजनिक धन के गबन, राजनेताओं व निजी कंपनियों के साथ सांठगांठ जैसे भ्रष्ट आचरण में लिप्त पाए जाते हैं। व्यक्तिगत लाभ के लिए शक्ति के दुरुपयोग ने इस सेवा की छवि को धूमिल किया है। निगरानी तंत्र मौजूद तो हैं, लेकिन वे या तो कमजोर हैं या फिर राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण निष्क्रिय हो जाते हैं।

5.* *दिखावे की प्रवृत्ति*

सोशल मीडिया के इस युग में एक नई प्रवृत्ति उभरी है—‘शो-ऑफ एडमिनिस्ट्रेटर्स’। ये अधिकारी जनहितकारी कार्यों के बजाय अपनी छवि चमकाने में अधिक रुचि रखते हैं। वायरल वीडियो, सतही बदलाव और पीआर स्टंट इनकी प्राथमिकता बन जाते हैं, जबकि ठोस सुधार और शासन के मूल सिद्धांत पीछे छूट जाते हैं। इससे नागरिकों में भ्रम और असंतोष की स्थिति उत्पन्न हो रही है।

6. *अहंकार और घमंड*

कुछ IAS अधिकारियों में अधिकार और श्रेष्ठता की भावना इतनी प्रबल हो जाती है कि उनका कार्यशैली अहंकारी और तानाशाही हो जाती है। ये अधिकारी सहयोग के बजाय एकतरफा निर्णय थोपते हैं—चाहे वह अन्य संस्थाएं हों, विशेषज्ञ हों या आम जनता। इस प्रकार का व्यवहार प्रशासनिक मशीनरी में टकराव पैदा करता है और लोगों से दूरी बढ़ाता है।

*निष्कर्ष*

यह अवश्य स्वीकार करना चाहिए कि IAS में आज भी कई ईमानदार, सक्षम और दूरदर्शी अधिकारी हैं जो सराहनीय कार्य कर रहे हैं। लेकिन सेवा की समग्र संरचना और संस्कृति में तत्काल सुधार की आवश्यकता है। भारत को ऐसे प्रशासकों की आवश्यकता है जो केवल बुद्धिमान न हों, बल्कि ज़मीनी हकीकत से जुड़े हों, राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्ध हों, नैतिक दृष्टि से दृढ़ हों और प्रशासनिक रूप से दक्ष हों। जब तक भर्ती, प्रशिक्षण, जवाबदेही और प्रदर्शन मूल्यांकन में आमूल-चूल परिवर्तन नहीं लाया जाएगा, तब तक IAS एक बीते युग की विरासत बनकर रह जाएगी—अप्रभावी, अविश्वसनीय और भारत की बढ़ती चुनौतियों के सामने अनुपयुक्त।

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