जब अपराध बन जाए उत्सव – नैतिक पतन की परछाई में समाज, आजम खान का कारवाँ
डॉ उमेश शर्मा की कलम से
जब जेल से छूटने पर आजम खान का या अन्य किसी व्यक्ति का, विशेषकर किसी राजनीतिक या प्रभावशाली व्यक्ति का, महाउत्सव की तरह स्वागत किया जाता है — तब यह न सिर्फ न्याय व्यवस्था का मज़ाक बनता है, बल्कि समाज के नैतिक स्तर की गंभीर गिरावट को भी दर्शाता है।
यह स्थिति सिर्फ कानून की विफलता नहीं, बल्कि सामूहिक मानसिकता के संक्रमण का संकेत है। आइए, इस पर एक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करते हैं:
1. *हीरो वर्शिप सिंड्रोम (Hero Worship Syndrome)*:
• समाज में कुछ वर्गों में व्यक्तित्व पूजा (personality cult) इस हद तक पहुँच जाती है कि व्यक्ति के कर्मों की नैतिकता गौण हो जाती है।
• _लालू यादव या आज़म खान_ जैसे नेता जब कानूनी दोषी करार दिए जाते हैं, तब भी उनके समर्थकों के लिए वे “नायक” बने रहते हैं।
• यह मास साइकॉलॉजिकल ब्लाइंडनेस है – जहाँ सच से मुँह मोड़ना आसान होता है क्योंकि ‘भावनात्मक लगाव’ तर्क से ऊपर होता है।
2. *नैतिक भ्रम (Moral Disengagement)*:
• लोग खुद को यह कहकर संतुष्ट कर लेते हैं कि:
“सभी तो भ्रष्ट हैं”,
“उन्होंने भी कुछ अच्छा किया है”,
“वो हमारे समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं”।
• यह नैतिक जिम्मेदारी से बचने की प्रक्रिया है। इसे मनोविज्ञान में ‘moral disengagement’ कहा जाता है — यानी व्यक्ति जानबूझकर नैतिक सिद्धांतों को नज़रअंदाज़ करता है।
3. *सामाजिक आदर्शों का पतन (Collapse of Social Ideals)*:
• अगर समाज में गलत कार्यों पर सजा के बजाय सम्मान मिलने लगे, तो अगली पीढ़ी का यह सीखना कि “क्या सही है”, लगभग असंभव हो जाता है।
• अनुकरण मानव व्यवहार का मूल है — जब बच्चे और युवा देखते हैं कि अपराधियों का सम्मान होता है, तो वे भी इसी मार्ग को वैध समझने लगते हैं।
4. *न्याय व्यवस्था में अविश्वास (Loss of Faith in Justice)*:
• यदि जेल से छूटने के बाद नेता फूलों की माला पहनकर, रथ पर बैठकर निकलते हैं — तो आम आदमी के मन में यह भाव आता है कि न्याय पैसे और सत्ता का गुलाम है।
• इससे अपराध के प्रति सहनशीलता बढ़ती है और सामाजिक अपंगता फैलती है।
जब समाज में नैतिक मूल्यों की गिरावट होती है, तो न्याय और अन्याय में अंतर करना कठिन हो जाता है। अपराधियों का महिमामंडन होने लगे, तो धीरे-धीरे समाज में अपराध को सामाजिक स्वीकृति मिलने लगती है। कानून का अवमूल्यन होता है, जिससे लोगों के मन से भय समाप्त हो जाता है और अराजकता पनपती है। ऐसे माहौल में युवाओं का दिशा भ्रम होना स्वाभाविक है, और वे गलत रास्तों को ही सही मानने लगते हैं। *जब नेता कानून से ऊपर हो जाते हैं, तो लोकतंत्र केवल एक दिखावा बनकर रह जाता है और उसकी आत्मा मरने लगती है।*
*समाधान की दिशा*:
1. शिक्षा में नैतिक मूल्यों को प्राथमिकता देना।
2. स्वस्थ और विवेकशील राजनीतिक चर्चा को प्रोत्साहित करना।
3. मीडिया को जवाबदेह बनाना जो महिमामंडन से बचे।
4. सिविल सोसाइटी की भागीदारी बढ़ाना – जो गलत को गलत कहे।
5. युवाओं को role models चुनने में जागरूक बनाना।
“*जहाँ अपराधी सम्मानित हों और ईमानदार उपहास के पात्र — वहाँ सिर्फ अंधकार जन्म लेता है, न्याय नहीं।*”