राहुल एवं तेजस्वी “विरासत की छाँव में नेतृत्व की तलाश: न वारिस मजबूत, न वारिसत कायम--
नोएडा : देश के जाने माने मनोवैज्ञानिक डॉ उमेश शर्मा ने राहुल गांधी और तेजस्वी यादव के व्यक्तित्व और उनके आचरण पर गहन अध्ययन किया है. उनके अनुसार भारतीय राजनीति में विरासत की भूमिका हमेशा से अहम रही है। लेकिन जब नेतृत्व केवल विरासत पर टिके और व्यवहारिक राजनीतिक ज़मीन से कटा हो, तो यह लोकतंत्र के लिए भ्रम और दिशाहीनता का कारण बनता है। राहुल गांधी और तेजस्वी यादव — दो प्रमुख ‘युवानेता’ — इस संक्रमणशील स्थिति के प्रतीक हैं, जहाँ राजनीतिक अधिकार तो है, पर नेतृत्व की स्पष्टता और प्रतिबद्धता का अभाव भी साफ दिखाई पड़ता है.
1. *नेतृत्व की आंतरिक असुरक्षा:*
राजनीतिक विरासत से आए नेताओं में यह सामान्य प्रवृत्ति देखी जाती है कि वे संघर्ष की बजाय संरक्षित रास्तों को चुनते हैं।
राहुल गांधी के व्यवहार में यह स्पष्ट दिखता है — वे राष्ट्रीय कार्यक्रमों से दूरी बनाए रखते हैं, और जब तक कोई बड़ा नुकसान न हो, तब तक प्रतिक्रिया नहीं देते।
यह दर्शाता है:
• आत्मविश्वास की कमी
• आत्म-निर्भर नेतृत्व का अभाव
• अनिर्णय और *बाहरी सलाह पर अत्यधिक निर्भरता*
2. *दिशाहीनता और रिएक्टिव राजनीति:*
“हवा का रुख जिधर, उधर चल दिया” — यह मानसिकता योजना-रहित नेतृत्व का प्रतीक है।
तेजस्वी यादव की राजनीति भी अक्सर तत्कालीन मुद्दों पर प्रतिक्रिया देने तक सीमित रहती है, दीर्घकालिक विकास या वैचारिक स्पष्टता का अभाव दिखता है।
यह संकेत करता है:
• विचारधारा का असंतुलन
• दीर्घकालिक सोच और नीति निर्माण की अनुपस्थिति
• केवल जनाधार बचाने की जद्दोजहद
3. *सार्वजनिक मंच से दूरी – संवादहीन नेतृत्व:*
डॉ शर्मा के अनुसार राहुल गांधी का राष्ट्रीय कार्यक्रमों में नियमित रूप से भाग न लेना, और जनसंवाद से बचना दर्शाता है कि वे सार्वजनिक आलोचना और चुनौतीपूर्ण विमर्श से कतराते हैं।
यह संकेत है एक Avoidant Personality Trait का —
जहाँ टकराव से दूर रहना, जटिल परिस्थितियों से बचना और सीमित संवाद रखना आम बात होती है।
4. ’*उत्तर-ज़मींदारी’ मानसिकता*:
जिस प्रकार ज़मींदारी प्रथा के अंत के बाद कई ज़मींदारों के पास सत्ता तो बची रही, लेकिन व्यवहारिक शक्ति और ज़मीनी पकड़ खत्म हो गई — उसी प्रकार ये दोनों नेता नाम और प्रतीक तो हैं, लेकिन जमीनी नेतृत्व और नीति निर्धारण से काफी दूर हैं।
मनोवैज्ञानिक डॉ उमेश शर्मा का कहना है कि
राहुल गांधी और तेजस्वी यादव दोनों ही भारत की राजनीतिक विरासत के वारिस हैं, लेकिन नेतृत्व का वह आंतरिक बल उनमें दिखाई नहीं देता जो जमीनी राजनीति में ज़रूरी होता है।
ये नेता न तो पुरानी पीढ़ी की तरह संघर्षशील हैं, न ही नई राजनीति की तरह नवाचारी।
*इनका नेतृत्व ‘स्थगन’ की स्थिति में है — जहां विरासत है, लेकिन दिशा नहीं।*