मौकेदारों ने किया प्रज्ञा ठाकुर का संहार

 *राष्ट्र-चिंतन* 

 *प्रज्ञा ठाकुर के उत्थान और पतन की कहानियां* 


     



 *आचार्य विष्णु हरि सरस्वती* 

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प्रज्ञा ठाकुर की राजनीतिक जड़ खोखली थी, शून्य थी फिर भी उसने अपने आप को बरगद के पेड समझ लिया। राजनीतिक रणनीति में शून्य थी लेकिन उसने अपने आप को राजनीति का चाणक्य समझ लिया। खुद भस्मासुर बन गयी। जिस डाल पर बैठी थी उसी डाल को काटने लगी। आत्मघाती रार में फंस गयी। अहंकार को अपनी राजनीतिक मानसिकता बना लिया। जिस सीढी पर चढकर संसद तक पहुंची थी उसी को नष्ट करने लगी। संघर्ष के सहचरों को निकाल बाहर फेंकी। नये मौकेदार लोगों से घिर गयी। मौकेदारों ने उन्हें सीधे तार के पेड पर चढा दिया। तार के पेड पर चढने वालों का भला कौन करेगा? नरेन्द्र मोदी को ही चुनौती दे डाली। अहंकार पाल लिया कि भाजपा उनकी चरणवंदना करेगी। संसदीय क्षेत्र की समस्याओं के प्रति अनिच्छुक बन गयी, जनता को भी गुलाम समझ लिया, कह दिया कि नाले-सड़क बनाने के लिए मैं सांसद नहीं बनी हूं, इत्यादि-इत्यादि।

                 राजनीति में विद्रोह वर्जित है, विद्रोह का अधिकतर रिजल्ट खुद के संहार जैसा ही होता है। राजनीति में उतावला पन बहुत नुकसानकुन होता है। राजनीति में उतावले पन की जगह धीरज की जरूरत होती है, अनुकुल अवसर पर ही अपनी शक्ति दिखानी होती है। पर उसने अराजकता को अपनी अराजक शक्ति बना लिया। पार्टी के अंदर अनुशासन की आवश्यकता होती है पर उसने बार-बार अनुशासन को भंग करने की कोशिशों को जारी रखी। राजनीति से बाहर आप हिंसक बयानबाजी कर सकते हैं, विषयों की सीमा रेखा को लांघ सकते हैं, सनसनी फैला सकते हैं पर पार्टी के अंदर पार्टी की नीति और सिद्धांत ही प्रमुख होते हैं। क्या यह सही नहीं है कि प्रज्ञा ठाकुर ने अपनी ही पार्टी की नीति और सिद्धांत की खुलम खुला अवहेलना का काम किया था?

                    याद कीजिये नरेन्द्र मोदी की प्रज्ञा ठाकुर के प्रति बयान को, धारणा को और गुस्से को। नरेन्द्र मोदी ने तब कहा था कि प्रज्ञा ठाकुर को मैं कभी माफ नहीं करूंगा। राजनीति के चाणक्य उसी समय अनुमान लगा लिये थे कि मोदी की राजनीति के संसार में प्रज्ञा ठाकुर की अब कोई जगह नहीं बची है, प्रज्ञा ठाकुर की राजनीति की इतिश्री हो गयी। फिर भी प्रज्ञा ठाकुर ने मोदी के गुस्से को संज्ञान में लेने से इनकार कर दिया, उसके संदेश को समझने में गंभीरता नहीं दिखायी। दरअसल प्रज्ञा ठाकुर को अपने कट्टरपंथ पर अभिमान था, अतिरिक्त समृद्धि थी। जबकि नरेन्द्र मोदी कभी किसी को भूलते नहीं है, उनकी लाठी में आवाज नहीं होती है, उनकी लाठी अवसर की तलाश में होती है, जब लाठी चलती है तो वह लाठी संहारक बन जाती है। यशवंत सिन्हा, लालकृष्ण आडवाणी, उमा भारती सहित न जाने कितने भाजपायी मोदी की राजनीतिक लाठी की मार के शिकार होकर हाशिये पर ढकेल दिये गये, सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि इनकी राजनीतिक जीवन ही समाप्त हो गया। फिर प्रज्ञा ठाकुर किस खेत की मूली थी, प्रज्ञा ठाकुर तो अभी-अभी राजनीति की अंकुर ही थी, जिसकी बाढ भी आनी बाकी था।

                    अब मोदी के गुस्से का राजनीतिक विज्ञान क्या था? आखिर नरेन्द्र मोदी इतने गुस्से में क्यों थे? उनका गुस्सा क्यों शांत नहीं हुआ? टिकट काटने के लिए क्यों मजबूर हुए। वास्तव में नरेन्द्र मोदी की सबसे बडी और प्रसिद्धि वाली नीति पर ही प्रज्ञा ठाकुर ने चाबुक चला दिया था। प्रज्ञा ठाकुर की चाबुक क्या थी? वास्तव में नरेन्द्र मोदी की स्वच्छता नीति की भूमिका और प्रश्न थी। नरेन्द्र मोदी की स्वच्छता नीति कितनी महत्वपूर्ण और चर्चित रही है, यह कौन नहीं जानता है। स्वच्छता नीति का आधार नरेन्द्र मोदी ने महात्मा गांधी को बनाया था और प्रतीक चिन्ह गांधी जी का चश्मा बना। नरेन्द्र मोदी की सरकारी नीति में महात्मा गांधी ही प्रमुख बन गये। प्रज्ञा ठाकुर ने संसद के बाहर महात्मा गांधी पर कटाक्ष करने की कोई कसर नहीं छोडती थी, महात्मा गांधी की जगह नाथूराम गोडसे को वह राष्ट पुरूष स्थापित करने की नीति पर चल पडी थी। इसके अलावा अन्य विवादित बयानों की की लंबी-चौडी फेहरिस्त बना डाली। ऐसी स्थिति नरेन्द्र मोदी के लिए असहज थी, क्योंकि ऐसी बयानबाजी की कीमत भी नरेन्द्र मोदी को चुकानी पडती है, संसद और मीडिया में सनसनी फैलती तो है, इसके अलावा इसकी गूंज अंतर्राष्टीय मीडिया और अतर्राष्टीय नियामकों में भी होती है। अंतराष्टीय नियामकों में भारत सरकार को जिम्मेदारी दिखानी होती है, स्पष्टीकरण प्रकट करना पडता है। यही कारण है कि गैर जरूरी और हिंसक बयानबाजी पर नरेन्द्र मोदी ने रोक लगाने का फरमान जारी कर दिया था। लेकिन प्रज्ञा ठाकुर ने मोदी की रोक को मानने से इनकार कर दिया था। उसने फिर संसद के अंदर ही नाथूराम गोडसे को इतिहास पुरूष घोषित कर दिया। इस पर मोदी की पूरी सरकार आफत में फंस गयी थी। दुष्परिणाम हुआ कि भाजपा ने प्रज्ञा ठाकुर को संभलने के लिए आदेश जारी कर दिया। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि पार्टी और संसदीय दल की बैठकों में प्रज्ञा ठाकुर की तरफ नरेन्द्र मोदी देखना तक पसंद नहीं करते थे, भाजपा के शीर्ष नेता और मोदी मंत्रिमंडल के बडे नेताओं तकं प्रज्ञा ठाकुर से दूरी बनाने में ही अपनी भलाई समझी थी।

                    इसके पीछे प्रज्ञा पर अदूरदर्शिता हावी थी और भविष्यगामी दुष्परिणामों की समझ नहीं थी, राजनीति विसात पर त्रिनेत्र के संहार और प्रहार की समझ नहीं थी। प्रज्ञा की राजनीति की बाढ नहीं थी। अगर बाढ होती तो फिर वह संसद के अंदर नाथूराम गोडसे को राष्ट पुरूष के तौर पर स्थापित करने की कोशिश ही नहीं करती? नाथूराम गोडसे के प्रति भाजपा की आतरिक समझ जो कुछ भी हो, हो सकता है कि भाजपा के लोग अप्रत्यक्ष रूप से नाथूराम गोडसे के समर्थक हों पर प्रत्यक्ष राजनीति में भाजपा नाथूराम गोडसे से दूरी ही बना कर रखती है। संघ पर नाथूराम गोडसे को लेकर अंतिरंजित और गैरजरूरी आरोप लगे, नेहरू सरकार की कुदृष्टि भी चली थी, हिंसक हथकंडे भी चले थे पर संघ की भूमिका कहीं से भी हिंसक नहीं निकली, विभिन्न न्यायिक परीक्षणों में संघ बेदाग साबित हुआ। संघ भी महात्मा गांधी की हत्या को जरूरी नहीं बताता है। फिर प्रज्ञा ठाकुर इतनी शाब्दिक हिंसक कैसे हो सकती है, उसकी इस भूमिका राजनीति में कैसे क्यों समाहित होनी चाहिए थी?

                   मैने प्रज्ञा ठाकुर का संघर्ष भी देखा है, उस पर हुई पुलिस की हिंसा से भी मैं अवगत हूं, एक तरह से मैंनें उनकी राजनीतिक उत्थान और पतन को बहुत ही नजदीक से देखा है। हमारे साथ ही साथ हजारो राष्टवादी समूहों ने प्रज्ञा ठाकुर को जेल से बाहर निकालने और राजनीति की भूमिका में स्थापित करने के लिए बहुत बडा त्याग किया है। भोपाल के लोगों ने 2019 में वह अवसर देखा था जब प्रज्ञा ठाकुर को लोकसभा चुनाव जीताने के लिए देशभर से हजारों राष्टवादी पहुंचे थे जो खुद के पैसे और संसाधनो से प्रचार का शमा बांध दिया था। भोपाल की जनता प्रारंभिक समय में प्रज्ञा ठाकुर को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं थी,प्रज्ञा ठाकुर के सामने दिग्विजय सिंह जैसा भारी भरकम राजनीतिज्ञ थे। संघ के पूरोधा लक्ष्मीनारायण भाला ने मोचा संभाला था, लक्ष्मीनारायण भाला के मार्ग दर्शन में राष्टवाद की हवा बहायी गयी। फिर दिग्विजय सिंह की लूटिया डूब गयी। मिर्ची बाबा, कम्पयूटर बाबा, जावेद अख्तर, स्वामी अग्निवेश और स्वरा भास्कर जैसों की मदद और प्रचार भी दिग्विजय सिंह के लिए काम नहीं आया था। प्रज्ञा ठाकुर की भोपाल लोकसभा सीट से जीत राष्टवाद की जीत तो थी ही इसके अलावा प्रज्ञा ठाकुर पर पुलिसिया हिंसा और कांग्रेस की साजिश के खिलाफ जनादेश का प्रमाण भी था।

         अपने बैगाने हो गये, मौकेदार अपने हो गये। संघर्ष के साथी बाहर हो गये। प्रज्ञा ठाकुर के बहनोई भगवान झा का पराक्रम भी कौन भूल सकता है? आठ सालों तक प्रज्ञा ठाकुर की लडाई भगवान झा ने लडी थी, भोपाल, दिल्ली, मुबंई की खाक छानी थी, खाने के लिए पैसे नहीं होते थे, मदद के लिए कोई आगे नहीं आता था, कांग्रेसी राज में जेल जाने का जो डर था। फिर भी भगवान झा ने प्रज्ञा ठाकुर को जेल से बाहर निकाल कर ही दम लिया, चुनाव जीताने में भी भगवान झा की बडी भूमिका थी। प्रज्ञा ठाकुर ने संसद बनने के साथ ही भगवान झा को बाहर का रास्ता दिखा दिया,अपमान से आहत होकर भगवान झा ने भोपाल ही छोड दिया, वे गुजरात के सूरत शहर में बस गये। भगवान झा जैसे सैकडों और हजारों लोग हैं जिनके लिए प्रज्ञा ठाकुर के दरवाजे बंद हो गये। प्रज्ञा ठाकुर ने अपना नया संसार बना लिया जो मौकेदारों-अवसरवादियो का था।

        मौकेदारों-अवसरवादियों के दुष्परिणामों से जब अडवाणी जैसे शिखर पुरूष नहीं बच सके तो फिर प्रज्ञा ठाकुर कैसे बचती? कम्युनिस्ट सलाहकार सुधीन्द्र कुलकणी की संहारक मानसिकता से जिन्ना प्रकरण निकला था, सुषमा स्वराज के मना करने के बावजूद भी सुधीन्द्र कुलकर्णी ने आडवाणी से जिन्ना प्रकरण वाला बयान दिलवाया था और आडवाणी ने जिन्ना की कब्र पर जाकर चरणवंदना की थी। आडवाणी की किस प्रकार दुर्गति हुई, यह कौन नहीं जानता है? अवसरवादी सलाहकारों ने ऐसा ही काम प्रज्ञा ठाकुर से करवा दिया, समझा दिया कि विवादित बयान देते रहिये, आपके सामने नरेन्द्र मोदी की औकात ही क्या है, भाजपा आपकी ं चरणवंदना करने लगेगी। दुष्परिणाम प्रज्ञा की राजनीति की इतिश्री हो गयी।


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