योगावतार के जीवन से अमृतपान
श्री श्री लाहिड़ी महाशय की 195वीं जयंती विशेष
डॉ (श्रीमती) मंजु लता गुप्ता
“ईश्वरानुभूति के गुब्बारे में प्रतिदिन उड़कर मृत्यु की भावी सूक्ष्म यात्रा के लिए अपने को तैयार करो......क्रियायोग की गुप्त कुंजी के उपयोग द्वारा देह - कारागार से मुक्त होकर परमतत्त्व में भाग निकलना सीखो।“ भौतिक देह में वास करते हुए भी अनंत के साम्राज्य में विचरण करने वाले गृहस्थ योगी,महान् गुरु श्री श्री लाहिड़ी महाशय के ये शब्द भगवद्प्रेमियों के लिए एक ऐसे निश्चित मार्ग की ओर संकेत करते हैं जिसका अनुसरण वे अपने सांसारिक कर्त्तव्यों को निभाते हुए भी कर सकते हैं।
“व्यावसायिकऔर सामाजिक कर्त्तव्यों को निभाते निभाते ध्यान धारणा का समय ही कहाँ मिलता है।“ आज केसमय में प्रचलित इस प्रकार के सामान्य प्रतिवादों का खंडन करने के लिए श्री श्री परमहंस योगानन्दजी ने अपनी पुस्तक ‘योगी कथामृत’, जिसे न्यूयार्क टाइम्स ने ‘एक अद्वितीय वृतांत‘ कहकर संबोधित किया, में अपनी आध्यात्मिक यात्रा का वर्णन करते हुए,इस महान् गुरु के जीवन से हमें परिचित करायाहै।
जीवनमुक्त होते हुए भी जनसामान्य को ईश्वरानुभूति की प्रविधि,क्रियायोग का महाप्रसाद जन जन में वितरित करने हेतु इस महायोगी ने 30 सितम्बर सन् 1828 को एक धर्मनिष्ठ प्राचीन ब्राह्मण कुल में बंगाल के नदिया जिले में घुरनी नामक एक गाँव में जन्म लिया। तेंतीस वर्ष की आयु में 1861 में अपने गुरु मृत्युंजय महावतार बाबाजी के नाटकीय आह्वान पर वे अपने गुरु से मिलते हैं और कई कल्पों से लुप्त क्रियायोग ज्ञान की सरिता को गुह्य गुफा से शहर की भीड़भाड़ में बहा ले आते हैं, जिसे सीखने के लिए आध्यात्मिक जिज्ञासु योगानन्दजी द्वारा स्थापित योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया के आश्रम/केन्द्रों में पहुँचकर या (yssi.org)पर देखकर इसको सीखने का विवरण जान सकते हैं।
लाहिड़ी महाशय ने गृहस्थ जीवन का अनुसरण करते हुए संतुलित जीवन का सर्वोत्तम उदाहरण आज के युग के लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया। ईश्वर की आँखों में तो वे सिद्ध पुरुष थे ही, साथ ही मानव जीवन के नाटक में भी उन्होंने पूर्ण सफलता प्राप्त की थी। वे मिलिटरी इंजीनियरिंग विभाग में कार्यरत्त थे जहाँ उन्हें कई बार पदोन्नति भी मिली थी।
एक दिन अपने कार्यालय में कार्यरत्त अंग्रेज़ ऑफिस सुपरिन्टेंडेंट के चेहरे पर उदासी देख लाहिड़ी महाशय ने उनसे पूछा-“सर, आप दुखी लगते हैं क्या बात है?”
“मेरी पत्नी गंभीर रूप से बीमार है। मुझे बहुत चिंता हो रही है।” सुपरिन्टेंडेंट के ये शब्द सुनकर वे एकांत स्थान में गए और कुछ समय बाद मुस्कराते हुए आए और उन्हें धीरज बँधाया कि अब उनकी हालत सुधर रही है और वे उनको एक पत्र लिख रही हैं।
“आनंदमग्न बाबू, इतना तो मैं पहले ही जान गया हूँ कि आप साधारण मनुष्य नहीं हैं। फिर भी मुझे विश्वास नहीं हो पा रहा है किआप अपनी इच्छा मात्र से ही देश और काल की सीमाओं को मिटा सकते हैं।“ सुपरिन्टेंडेंट के ये शब्द इस युगपुरुष की सर्वव्यापकता को उजागर करते हैं। कुछ समय बाद जब सुपरिन्टेंडेंट की पत्नी भारत आई तो लाहिड़ी महाशय को देखकर बोली –“महीनों पहले लंदन में अपनी रुग्ण शैय्या के पास तेजस्वी प्रकाश में मैंने आपको ही देखा था। उसी क्षण मैं पूर्ण स्वस्थ हो गई थी और थोड़े ही दिन बाद भारत की लंबी समुद्र यात्रा करने में समर्थ हो गई।“
ऐसे सर्वज्ञ गुरु को हम शत शत नमन करते हैं और उनके अविर्भाव दिवस की बेला में ‘योगी कथामृत’ से उनके विषय में और अधिक जानकर उनके साथ एकरूपहोने की कामना करते हैं।अधिक जानकारी: yssi.org