सतत व स्थायी विकास के लिए प्राकृतिक कृषि जरूरी- उपराष्ट्रपति


 प्राकृतिक खेती को मिशन मोड में बढ़ावा देने के लिए सरकार प्रवृत्त- कृषि मंत्री श्री तोमर

अक्षय कृषि परिवार के राष्ट्रव्यापी अभियान के अंतर्गत "भूमि सुपोषण" संकलन का लोकार्पण

नई दिल्ली,  उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने कहा है कि यह समझना होगा कि प्राकृतिक स्रोत जैसे जल, मिट्टी, भूमि अक्षय नहीं हैं, न ही इन्हें फिर से बनाया जा सकता है। मानव का भाग्य और भविष्य प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण पर ही निर्भर है। सतत व स्थायी विकास के लिए प्राकृतिक कृषि जरूरी है।" उपराष्ट्रपति आज यहां अक्षय कृषि परिवार द्वारा भूमि सुपोषण और संरक्षण पर चलाए जा रहे देशव्यापी अभियान पर आधारित पुस्तक "भूमि सुपोषण" का लोकार्पण कर रहे थे। इस अवसर पर, कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि सरकारी और गैर-सरकारी प्रयासों से देश में आर्गेनिक खेती बढ़ रही है, जिसका रकबा 38 लाख हेक्टेयर तक पहुंच चुका है, कृषि निर्यात में भी इन उत्पादों का अधिक योगदान है। इसके साथ ही, केंद्र सरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति पर जोर दे रही है। प्राकृतिक खेती को मिशन मोड में बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार पूर्ण प्रवृत्त है।

मुख्य अतिथि उपराष्ट्रपति श्री नायडू ने, देश के एक बड़े भाग में, विशेषकर पश्चिमी और दक्कन के क्षेत्र में मिट्टी के सूखकर रेतीली बनने पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि एक अनुमान के अनुसार प्रति वर्ष प्रति हेक्टेयर 15 टन मिट्टी नष्ट हो रही है। यह आवश्यक है कि भूमि के स्वास्थ्य पर ध्यान देकर उसे पुनः स्वस्थ बनाया जाएं। रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों के सघन प्रयोग से मिट्टी विषाक्त हो जाती है और उपजाऊ जैविक तत्व समाप्त होते जाते हैं। अधिकांश राज्यों में भूमि की उर्वरा शक्ति कम हो रही है। सिंचाई के लिए भूजल का निर्बाध दोहन हो रहा है। भूजल स्तर नीचे आ गया है, मिट्टी की नमी कम हो गई है, जिससे उसके जैविक अवयव समाप्त हो रहे हैं। उपराष्ट्रपति ने कहा कि मिट्टी के स्वास्थ्य के लिए,  प्राकृतिक जैविक खेती आशा की नई किरण है। पारंपरिक ज्ञान के आधार पर स्थानीय संसाधनों, जैसे गोबर, गौ मूत्र आदि की सहायता से न केवल कृषि की बढ़ती लागत को कम किया जा सकता है, बल्कि भूमि की जैविक संरचना को बचाया जा सकता है। देशी खाद और कीटनाशक, पारंपरिक पद्धति से कम लागत में ही बनाए जा सकते हैं, जिससे किसानों की आमदनी भी बढ़ेगी। 

मृदा स्वास्थ्य बचाने के लिए सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर किए जा रहे प्रयासों पर संतोष जताते हुए उपराष्ट्रपति ने सरकार द्वारा मृदा स्वास्थ्य 12 पैमानों पर मापने के लिए मृदा स्वास्थ्य कार्ड व्यापक पैमाने पर प्रचलित किए जाने का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि मिट्टी की जांच के लिए प्रयोगशालाओं के नेटवर्क का निरंतर विस्तार किया जा रहा है। इस वर्ष के बजट में गंगा नदी के किनारों पर रासायनिक खेती के स्थान पर प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित करने का प्रावधान किया गया है। पारंपरिक कृषि विकास योजना के तहत प्राकृतिक जैविक खेती की विभिन्न पद्धतियों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र में जैविक खेती का क्षेत्रफल सर्वाधिक है। यह विशेष संतोष का विषय है कि देश के पर्वतीय प्रांतों, जहां खेती योग्य भूमि कम है और जोत का आकार भी छोटा होता है, वहां जैविक खेती को किसानों ने सफलतापूर्वक अपनाया है। इससे साबित होता है कि देश के बहुसंख्यक छोटे व सीमांत किसानों के लिए जैविक/प्राकृतिक खेती विशेष लाभकारी है। उन्होंने कहा कि जैविक खेती अपनाकर छोटे किसान भी अपनी लागत कम रख सकते हैं, जिससे उनकी आमदनी भी बढ़ेगी। 

श्री नायडू ने कहा कि कृषि, हमारी संस्कृति, प्रकृति से अलग नहीं हो सकती। उन्होंने कृषि अनुसंधान संस्थानों से, भारतीय परंपरा में कृषि व ग्रामीण व्यवस्था पर लिखे गए प्रामाणिक ग्रंथों जैसे: पाराशर कृत कृषि पराशर, पाराशर तंत्र, सुरपाल कृत वृक्षायुर्वेद, मलयालम में परशुराम कृत कृषि गीता, सारंगधर कृत उपवन विनोद आदि पर शोध करने व किसानों को प्राचीन कृषि पद्धति से परिचित कराने का आग्रह किया।  इस संदर्भ में उपराष्ट्रपति ने कहा कि भारत में स्थानीय परिवेश व ऋतुओं के अनुसार अनाजों और आहारों की समृद्ध परंपरा रही है, जिसे हम आधुनिकता के प्रभाव में धीरे-धीरे भूलते जा रहे हैं। उन्होंने आग्रह किया कि हम अपनी प्राचीन खाद्यान्न परंपरा को जीवित करें।

केंद्रीय कृषि मंत्री श्री तोमर ने कहा कि एक कालखंड था, जब देश में खाद्यान्न का संकट था, जिसके चलते रासायनिक खेती के साथ हरित क्रांति हुई लेकिन अब अलग स्थिति है। हमारा देश अधिकांश खाद्यान्न के उत्पादन के मामले में दुनिया में नंबर एक या नंबर दो पर है और कृषि निर्यात भी बढ़ रहा है, जो सालाना 4 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया है। बीच के कालखंड में भौतिकवादी सोच के परिणामस्वरूप भूमि के स्वास्थ्य की चिंता ओझल होती गई, लेकिन अब देश की आजादी के 75 साल पूरे होने जा रहे हैं, ऐसे अवसर पर आवश्यक है कि भूमि के सुपोषण को कायम रखा जाएं। इसे अपनाए जाने के प्रति पूरी गंभीरता से, समग्र दृष्टिकोण के साथ प्रयत्न किए जा रहे हैं। प्राकृतिक खेती को कृषि पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने जाने के संबंध में समिति बनाई गई है। उन्होंने अक्षय कृषि परिवार की पहल की सराहना करते हुए कहा कि इसी तरह से एक भारत-श्रेष्ठ भारत की परिकल्पना को साकार करने के लिए सामाजिक संस्थाओं की सहभागिता जरूरी है।

कार्यक्रम में कनेरी मठ, महाराष्ट्र के श्री कदसिद्धेश्वर स्वामी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकारिणी सदस्य श्री भागैया, अक्षय कृषि परिवार के अध्यक्ष श्री मनोज सोलंकी व ट्रस्टी और पब्लिकेशन की आयोजन समिति के संयोजक डॉ. गजानन डांगे, कुलपति, कृषि वैज्ञानिक, कृषि संगठनों के प्रतिनिधि व अन्य गणमान्यजन उपस्थित थे। प्रारंभ में श्री सोलंकी ने अतिथियों का स्वागत किया।  

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