शहरों में सुकून की नींद तलाश रही चट्टानों पर रहने वाली छिपकली
नई दिल्ली
(इंडिया साइंस वायर): शहरीकरण ने जीव-जंतुओं के जीवन को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया है। अपने प्राकृतिक आवास के बजाय शहरी क्षेत्रों में रहने वाले जीव-जंतुओं को नये पारिस्थितिक तंत्र में अनुकूलन स्थापित करने के लिए काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। दक्षिण भारत के शहरी क्षेत्रों में प्रमुखता से पायी जाने वाली एक छिपकली (Rock Agama) को ऐसी ही चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी), बेंगलूरू के सेंटर फॉर इकोलॉजिकल साइंसेज (सीईएस) के ताजा अध्ययन में पता चला है कि शहरी प्रायद्वीपीय क्षेत्रों में रहने वाली छिपकली (Rock Agama) असामान्य परिस्थितियों में अनुकूलन स्थापित करने और सूकुन भरी नींद के लिए ऐसे आवास स्थलों का चयन करती है, जो सतह के प्रकार, प्रकाश तथा तापमान की मात्रा के मामले में ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली उनके जैसी दूसरी छिपकलियों के आवास से मिलते-जुलते हैं।
आईआईएससी, बेंगलूरू के शोधकर्ताओं का कहना है कि नींद सभी जीवों के लिए जरूरी है; क्योंकि जब सोने के बाद मस्तिष्क स्मृतियों की छँटाई और वर्गीकरण का कार्य करता है, और अपनी ऊर्जा को पुनर्स्थापित करता है। शहरी पारिस्थितिक तंत्र में अधिक तापमान एवं प्रकाश की मात्रा, मानव निर्मित कृत्रिम संरचनाएँ और रात्रि के समय कृत्रिम प्रकाश से जीवों की नींद की गुणवत्ता एवं पैटर्न प्रभावित होते हैं। यह अध्ययन, शोध पत्रिका बिहेवियरल इकोलॉजी ऐंड सोशियोबायोलॉजी में प्रकाशित किया गया है।
आईआईएससी, बेंगलूरू में एसोसिएट प्रोफेसर और इस अध्ययन की वरिष्ठ शोधकर्ता मारिया ठाकर कहती हैं कि वैज्ञानिकों को इस बात की तो काफी अच्छी समझ है कि नींद के दौरान जानवरों का दिमाग कैसे काम करता है, लेकिन, वास्तविक दुनिया में वे कैसे सोते हैं, यह अच्छी तरह से ज्ञात नहीं है। "हम मानव साहित्य से जानते हैं कि कुछ स्थितियां हमें अन्य स्थितियों की तुलना में बेहतर नींद प्रदान करती हैं, और कुछ हमारी नींद में बाधा डालती हैं। लेकिन, जानवर भी इन सभी परिस्थितियों के साथ वास्तविक दुनिया में रहते हैं… और हम यह समझना चाहते थे कि प्राकृतिक आवास में वे कहाँ और कैसे सोते हैं।”
शोधकर्ताओं ने शहरी एवं ग्रामीण आवास में छिपकली के सोने के स्थान पर सतह के प्रकार, आवरण, प्रकाश की मात्रा और तापमान में अंतर की तुलना की है। प्रमुख शोधकर्ता नित्या मोहंती का कहना है कि “ग्रामीण क्षेत्र, जो शहरी कोलाहल से दूर हैं, वहाँ सोयी हुई छिपकलियों की तलाश के लिए सभी चट्टानों, पत्थरों, जमीन की सतह और झाड़ियों की पड़ताल की गई है। लेकिन, बेंगलूरू में, हम लोगों के घर के अहातों में गये, क्योंकि ये छिपकलियां ऐसे खाली लॉट या अविकसित भूखंडों पर कब्जा कर लेती हैं, जहाँ कुछ ठोस ब्लॉक होते हैं जिनका वे रहने के लिए उपयोग करती हैं।” आगे वह कहती हैं कि रात में आस-पड़ोस में हेडलाइट्स और फैंसी कैमरा उपकरणों के साथ घूमना अक्सर लोगों और पुलिस का ध्यान आकर्षित करता था, और कई मौकों पर उन्हें यह बताना पड़ता था कि उनकी टीम एक अध्ययन कर रही है।
ठाकर बताती हैं कि संरचना और अधिक रोशनी के मामले में शहरी आवास; ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अंतर रखते हैं। ऐसी स्थिति में, छिपकलियों को चुनौतीपूर्ण परिवेश का सामना करना पड़ता है। "एक तरीका तो इन परिस्थितियों में सोना है, या फिर जहाँ तक संभव हो प्राकृतिक आवास-स्थलों से मेल खाने वाली परिस्थितियों को ढूँढकर वे किसी अन्य तरीके से स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार खुद को अनुकूलित कर सकते हैं। हमने जो पाया, वह इन दोनों के बीच की स्थिति है।"
बंगलूरू के एक ग्रामीण क्षेत्र में सो रही एक किशोर छिपकली (Rock Agama)
शोधकर्ताओं ने पाया कि छिपकलियां उन संरचनाओं को चुनती हैं, जो उनके प्राकृतिक आवास से मिलती-जुलती हैं। आमतौर पर वे खुरदुरे क्रंक्रीट ब्लॉक में सोना अधिक पसंद करती हैं, जो उनके चट्टानी सतह वाले प्राकृतिक आवास से मिलते-जुलते हैं। शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में छिपकलियों के सोने वाले स्थलों का तापमान भी समान पाया गया। हालाँकि, शहरी स्थल, ग्रामीण स्थलों की तुलना में नौ गुना अधिक आश्रय और कवर प्रदान कर सकते हैं। इससे शहरी क्षेत्रों में अधिक प्रकाश की समस्या का समाधान मिलता है।
यह अध्ययन दर्शाता है कि छिपकलियां अपनी नींद की जगह के विकल्पों में लचीलापन अपनाती हैं, और शहरी तनाव को कम करने की कोशिश करती हैं, और अंत में उन स्थानों को चुनती हैं, जो ग्रामीण क्षेत्रों में उनके आश्रय-स्थलों से मिलते-जुलते हैं।
ठाकर के अनुसार, मानवजनित वातावरण से मुकाबला करने वाले जानवरों का अध्ययन करना बहुत महत्वपूर्ण है। "दुनिया निरंतर बदल रही है, और यह बदलती रहेगी। इसलिए, अगर हम यह जानते हैं कि अन्य जीवों के रहने की क्या आवश्यकताएं हैं, तो हम उन्हें यहाँ रहने में मदद करने के लिए कुछ पहल कर सकते हैं।" (इंडिया साइंस वायर)