ये प्रोफेसर नहीं रंगा सियार हैं

 *राष्ट्र-चिंतन* 


चयन प्रक्रिया की देन हैं घटिया शिक्षक



 *आचार्य श्री विष्णुगुप्त*

अभी-अभी जेएनयू में शिक्षकों से संबंधित साक्षात जानकारियों से अवगत होना मेरे लिए चिंता की बात हो गयी और मुझे समझ में यह बात जरूर आ गयी कि गुणवता के स्तर पर भारतीय विश्वविद्यालय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्यों पीछे हैं और विश्वविद्यालयों से अधकचरे और काॅपी पेस्ट वाले छात्र क्यों निकलते हैं। हुआ यह कि जब मैं एक कार्यक्रम में जेएनयू पहुंचा तो प्रोफेसरों का रंग-ढ़ग, चाल-चलन, उनके ज्ञान का स्तर और पढ़ाने का तरीका-शैली देख कर दंग रह गया, वाकपटुता का घोर अभाव, आकर्षक संप्रेषण शक्ति नदारत थी। प्रोफेसरों के रंग-ढंग भड़कीले थे, उनके जूते के रंग और उनके कपड़ों का रंग बहुत भड़कीले थे। उनके कपड़ों का रंग देख कर ऐसा लगता ही नहीं था कि वे प्रोफसर भी हो सकते हैं, वे जादूगर ज्यादा लग रहे थे। सेमिनार में प्रस्तुत उनकी शैली और ज्ञान देख कर भी हताशा-निराशा हुई। अधकचरे और काॅपी पेस्ट वाले जब कालेजों और विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर बनेंगे तो फिर शिक्षा का स्तर किस प्रकार का होगा और विश्वविद्यालयों से किस प्रकार के छात्र निकलेंगे, इसका अंदाज लगाया जा सकता है। विचार का विषय यह है कि विश्वविद्यालयों में अधकचरी और काॅपी पेस्ट वाली शिक्षा संस्कृति क्यों फैली हुई है और यह अधकचरी-काॅपी पेस्ट वाली शिक्षा संस्कृति कब तक चलती रहेगी? आखिर अब तक विश्वविद्यालयों की शिक्षा के स्तर को मजबूत और प्रेरक बनाये रखने की कोई चाकचैबंद व्यवस्था क्यों नहीं बनायी जा सकी है? अगर इसी तरह विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति होती रही तो फिर विश्वविद्यालय शिक्षा के प्रेरक आश्रय नहीं बल्कि अराजकता, अनैतिकता, कदाचार और भ्रष्ट संस्कृति के सहचर छात्रों का आश्रय बन कर रह जायेंगे। हम यह क्यों नहीं सोचते हैं कि जिस तरह की हमारी शिक्षा व्यवस्था होगी उसी तरह के इंजीनियर, डाॅक्टर, अधिकारी, कर्मचारी और राजनीतिज्ञ मिलेंगे। शिक्षा में ही नैतिकता, शुचिता और संयम आदि गढ़ने की शक्ति है।

                     जेएनयू को जानने वाले और जेएनयू जाने वालों को वहां के प्रोफेसरों का स्तर जरूर मालूम है। जेएनयू का प्रोफेसर होना गौरव की बात होती थी। जेएनयू में प्रोफेसर होने की बात की जानकारी होते ही सम्मान में सिर झुकता था और यह धारणा बनती थी कि ये जेएनयू में प्रोफेसर हैं तो फिर इनके ज्ञान का स्तर बहुत ही उंचा होगा, ये महाज्ञानी होंगें, इनके अंदर प्रेरक व्यक्तित्व होगी। जेएनयू के प्रोफेसरों से मिलने के बाद उनकी सहजता और सरलता जरूर लुभाती थी। उनके पहनावे न केवल सहज होते थे। बातचीत में न तो अंहकार होता था और न ही दिखावा होता था तथा न ही कोई एक्शन-नाटकीयता होती थी। सहज भाषा में बात करना और आम आदमी से भी प्यार से बात करना उनकी शख्सियत भी शामिल थी। इसीलिए जेएनयू के प्रोफसरों के प्रति सम्मान होता था। जेएनयू का एक इतिहास यह भी है कि उसने देश का कई अच्छे राजनीतिज्ञ, प्रशासनिक अधिकारी और शोधकर्ता दिये हैं। यही कारण है कि जेएनयू में पढ़ना छात्रों का सपना होता है और जेएनयू से निकलने वाले छात्र गर्व भी महसूस करते हैं। इसके अलावा जेएनयू का स्तर देश के अन्य विश्वविद्यालयों से सर्वश्रेष्ठ है।

               जेएनयू ही क्यों बल्कि देश के अन्य विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की स्थिति इससे भी बदत्तर है। आखिर कारण क्या है? कारण पीएचडी की घटिया और निम्नस्तरीय प्रक्रिया है। पीएचडी करने वाला ही काॅलेज और विश्वविद्यालयों में शिक्षक बनते हैं। बीच के वर्षो में सिर्फ पीएचडी धारण की ही जरूरत नहीं थी। शिक्षक बनने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षक पात्रता परीक्षा पास करनी होती थी। राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षक पात्रता पास होने की अनिवार्यता के कारण अधिकतर पीएचडी धारक भी शिक्षक बनने से वंचित हो जाते थे। इधर इस प्रक्रिया में बहुत सारी अनिवार्यता को समाप्त कर दिया गया है। पीएचडी की डिग्रियां आम हो गयी हैं। पहले पीएचडी धारण करने वाले गिने-चुने लोग हुआ करते थे। आज पीएचडी धारक तो गली-गली में मिल जायेंगे। जेएनयू में ही एक ऐसे फोफेसर की नियुक्ति हो गयी जिसने किसी अन्य के शोध को उठा कर रख दिया, फिर भी उसे पीएचडी की डिग्री मिल गयी। शिकायत के बावजूद उस पीएचडी धारक पर कोई कार्रवाई नहीं हुई, उनकी पीएचडी अमान्य नहीं हुई, उसके गाइड पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। इस उदाहरण से आप समझ सकते हैं कि हमारे देश में पीएचडी की डिग्रियां किस प्रकार से बांटी जा रही हैं और अमान्य तथा पीएचडी की कसौटी पर खरा नहीं उतरने वाले छात्रों को पीएचडी मिल जाती है।

                 कुछ उदाहरण भी यहां देख लीजिये। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार के समय एक विभाग में चपरासी के रिक्त स्ािान के लिए आवेदन आमंत्रित किये गये थे। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि चपरासी पद पर नौकरी के लिए आवेदन करने वाले बड़ी संख्या में इंजीनियरिंग और प्रबंधन के छात्र थे। इससे भी बढ़कर हैरानी की बात यह थी कि चपरासी पद पर आवेदन करने वालों मे चार सौ से अधिक पीएचडी धारक थे। उस समय जब यह खबर अखबारों में आयी तो फिर लोग आश्चर्यचकित हो गये, दंग रह गये। सतही तौर पर यह बोल दिया गया कि बैरोजगारी का प्रसंग है, इसलिए इतनी बड़ी संख्या में पीएचडी धारक भी चपरासी बनने के हेतु आवदेन करने के लिए बाध्य हुए थे। पर इस सतही बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता। अगर इस पर किसी शोध संस्थान ने शोध किया होता तो फिर असली कारण सामने आता। अगर ऐसी घटना खासकर अमेरिका और यूरोप में घटती तो फिर चाकचैबंद शोध भी होता, राष्ट्रीय स्तर पर बहस होती, संसद में इस विषय पर बहस होती और फिर इसके निष्कर्ष तथा समाधान पर चाकचैबंद नीति भी बनती।

                   हमारी अवधारणा यह है कि पीएचडी धारक की अलग ही चमक होती है। उसके अंदर स्वाभिमान होता है, गर्व होता है, अभिमान भी होता है। वह अपने क्षेत्र में इतना प्रतिभाशाली हो जाता है, इतना दक्ष हो जाता है कि उसे कहीं न कहीं जाॅब मिल ही जाता है। अगर किसी कारण किसी को मनपंसद नौकरी नहीं भी मिली तो फिर वह टयूशन पढ़ा कर अपना जीवन चला लेगा या फिर कोई अन्य सम्मानजनक व्यवसाय-कार्य ढूढ लेगा पर चपरासी नहीं बनेगा। मेरा अनुभव भी ऐसा ही कहता है। एक अखबार में एक पीएचडी धारी युवक नौकरी मांगने आता है। संयोग से उस पीएचडी धारक युवक के साक्षात्कार लेने की जिम्मेदारी मेरे पास थी। मैंने सिर्फ इतना ही कहा कि आपने जिस विषय में पीएचडी की है उसी विषय पर दो हजार शब्दों का एक लेख लिख कर दिखा दीजिये, आपको नौकरी मिल जायेगी। उस पीएचडी धारक युवक के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी। वह  मुश्किल से पांच-छह सौ शब्द लिख पाया और जो लिखा वह भी घटिया और अस्पष्ट था। जाहिर सी बात है कि उसकी पीएचडी की डिग्री काॅपी पेस्ट या अन्य किसी के द्वारा लिखी गयी होगी। मेरे इस प्रयोग का आप भी इस्तेमाल कीजिये, 95 प्रतिशत पीएचडी घारक अपनी पीएचडी की समीक्षा लिखने में असमर्थ साबित होंगे।

                    राज्य सरकारों के अधीन विश्वविद्यालयों के शिक्षण स्तर में कोई चाकचैबंद और प्रेरणादायी उदाहरण की उम्मीद ही बेकार है। राज्य सरकारों के अधीन विश्वविद्यालयों में छात्रों की उपस्थिति और पढ़ाई ऐसे ही प्रतिकात्मक हो गयी है। पर केन्द्रीय सरकार के अधीन केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षण और शिक्षकों की स्थिति सुधारी जा सकती है। घटिया स्तर के शोध कार्य पर आधारित पीएचडी बांटने की प्रक्रिया पर रोक लगायी जा सकती है। इसके अलावा अब सिर्फ पीएचडी के आधार पर ही शिक्षकों की नियुक्ति की प्रक्रिया बंद होनी चाहिए। राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षक पात्रता परीक्षा को और भी तर्क संगत बनाया जाना चाहिए। शिक्षकों की नियुक्ति में साक्षात्कार की अनिवार्यता होनी चाहिए। साक्षात्कार में पढ़ाई की शैली का भी परीक्षण होना चाहिए। इसके साथ ही साथ अगर कोई अपात्र शिक्षक नियुक्त हो गया तो फिर उसके नियुक्ति में शामिल सभी लोगों पर दंडात्मक कार्रवाई होनी चाहिए।

                       भारत सरकार को खासकर अमेरिका और यूरोप के शिक्षकों की नियुक्ति प्रक्रिया और उनके विश्वविद्यालयों में शोध के स्तर और शैली पर अध्ययन कराना चाहिए। अध्ययण रिपोर्ट को लागू भी करना होगा। तभी हम विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की गुणवत्ता और दक्षता की उम्मीद कर सकते हैं। शिक्षक देश का भविष्य होता है, शिक्षक देश का भाग्यविधाता होता है। शिक्षक अगर नैतिकवान, चरित्रवान और ज्ञानवान छात्र गढेंगे तो फिर देश में शिक्षक भी नैतिकता, चरित्र और ज्ञान के आईकाॅन बनेंगे।


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