न्यायपूर्ण समानता और शोषण मुक्त समाज की कल्पना

 एस. ज़ेड.मलिक(पत्रकार)

नई दिल्ली - संसार में सभी जीवों को प्रकृति की ओर से उसे अपना जीवन सुख शांति और भयमुक्त व अभाव मुक्त होकर अधिकार है और वह इसी प्रकार जीना भी चाहता है।

प्रकृति की ओर से मनुष्यों को श्रेष्ठ जीवों में गिना जाता है इसलिये मनुष्य अन्य जीव-जंतुओं की तुलना में अधिक समझदार और विवेकशील समझा जाता है और उसने चिंतन मनन के पश्चात यह विचार किया है की मनुष्य अपने साथ-साथ अन्य जीव जंतुओं और प्रकृति के साथ भी अपना समन्वय स्थापित करें ताकि सभी प्राणी सुख शांति पूर्वक अपना अपना जीवन जी सकें और किसी के भी जीवन में कोई बाधा उत्पन्न नहीं हो। किंतु आज तो स्थिति इतनी विकट हो गई है कि मनुष्य जाति जिसे प्रकृति की सबसे समझदार संरचना माना जाता था आज सारी मनुष्य जाति के ही अस्तित्व के लिए खतरा बन चुकी है और पूरी दुनिया में किसी का भी जीवन भयमुक्त अभाव मुक्त नहीं रह गया है।

भौतिक विज्ञान की उन्नति से मनुष्य ने अनेक प्रकार के आविष्कार तो कर लिए हैं जिसके कारण अनेक प्रकार की सुविधाओं का अंबार लग गया है। लेकिन सब के जीवन से सुख शांति और सुरक्षा का प्रश्न पहले से कई गुना जटिल हो गया है।

गरीबी अभाव अन्याय शोषण उत्पीड़न छल कपट विश्वासघात अपराध और षड्यंत्रों के कारण किसी का भी जीवन सुरक्षित नहीं रह गया है और हर व्यक्ति किसी हिंसक जानवरों से भरे हुए जंगल में मानो अकेला खड़ा है और भय से कांप रहा है।

मनुष्य ने तो अपने उपभोग की हर वस्तु को अपने विवेक और छल कपट से अपने आवश्यकता से अधिक मात्रा में प्राप्त कर अपने आने वाली सात पीढ़ियों के ऐशो आराम के किया संग्रहित कर लिया बल्कि निर्बल और असहायेओं का अधिकार भी अपने कब्जे में कर के अपना अधिकार जमा दिया। और उसके परिणाम दूसरे अन्य निर्बल असहाय जीवों को भारी मात्रा में भूख, बेरोज़गारी, भय, अशांति, चिंता, अभाव में जीवन यापन के लिये विवश हैं। किंतु उपभोग की वस्तुओं का जरूरतों से अधिक उत्पादन हो जाने के बावजूद भी बाकी जीव जंतुओं की बात छोड़िए, खुद मनुष्य की 30% आबादी भूख और अभाव के कारण अस्वाभाविक मृत्यु के मुंह में समा जाती है।

मनुष्य ने अपनी बुद्धि से अपने विनाश के अस्त्र-शस्त्र भी उतनी ही मात्रा में ढूंढ लिए हैं और वह उनका उपयोग एक दूसरे को धमकाने डराने मारने हत्या करने और अन्य निकृष्ट दम अपराध करने में भी बहुत आगे निकल गया है।

पूरी दुनिया में भीषण आर्थिक असमानता के कारण एक ओर तो मुट्ठी भर लोग इतने अधिक संपन्न हो गए हैं कि उन्होंने बाकी सारे लोगों के मूल अधिकारों को छीन कर उनको मनुष्य होने के न्यूनतम अधिकार से भी वंचित कर डाला है और उनके साथ अत्यंत क्रूरता पूर्ण व्यवहार करना अपना अधिकार समझ लिया है।

कुल मिलाकर मनुष्य जाति ने अपने ही विनाश की नींव भी रख दी है और पूरी दुनिया नरक का खुला खेल दिखाई पड़ती है।

दुनिया की सारी प्राकृतिक संपदा और संसाधनों पर मुट्ठी भर लोगों का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अधिकार हो गया है जिसके कारण दुनिया के लगभग 750 करोड़ लोग उनकी दया पर जिंदा है और प्रतिपल मौत जैसी खराब स्थिति में जीने को मजबूर हैं।

सारी दुनिया लगभग 200 टुकड़ों में बंटी हुई है और जिसे देश या राष्ट्र कहां जाता है वे सभी बड़े बड़े गिरोह मात्र हैं और एक दूसरे को नष्ट करने के लिए दिन रात नए-नए षड्यंत्र करते रहते हैं, ताकि एक दूसरे की सारी प्राकृतिक संपदा और संपत्ति पर येन केन प्रकारेण अधिकार जमा कर उन्हें अपना गुलाम बना सकें और सारे जीव जंतुओं के साथ-साथ वहां के लोगों को भी अपने उपभोग का हिस्सा बना सकें।

मनुष्य के इस नितांत भयावह और खतरनाक निकृष्ट व्यवहार में एक ऐसी दर्दनाक दुनिया बना डाली है जिसने प्रकृति के सारे सौंदर्य को ही नष्ट भ्रष्ट कर डाला है जिसके कारण जीव जंतु पेड़ों और अन्य अत्यंत अद्भुत और गुणकारी वनस्पतियों और पहाड़ों या समुद्रों का स्वरूप बदल डाला है।

कुल मिलाकर उसने प्रकृति पर्यावरण के हर पहलू को इतना वितरित कर दिया है कि अब सारी सुंदर प्रकृति विकृति का पर्याय बन गई है हवा पानी मिट्टी सुखी जीवन के मूल प्राकृतिक आधार तत्व प्रदूषित और विकृत होकर अपना स्वरूप खो बैठे हैं और अब उसकी बहुत बड़ी शक्ति केवल उनको सुधारने में लग रही है लेकिन वह भी केवल थोड़े से अति संपन्न लोगों को ही मिल सकती है।

कुल मिलाकर यदि हम मनुष्य द्वारा किए गए भौतिक विकास के अंतिम परिणाम पर विचार करें तो वह कितना भयानक और विनाशकारी होगा इसकी काफी कुछ कल्पना तो की ही जा सकती है और वह किसी को भी डराने लिए प्राप्त है। जो हर समाज के लिये बेहद चिंताजनक है।

लेकिन यह मानना ही होगा कि भारतीय सनातन संस्कृति द्वारा अनेक ऐसे अद्भुत आविष्कार किए हैं जिन्होंने पूरी दुनिया को एक आदर्श या सर्वश्रेष्ठ दिशा की ओर आगे बढ़ाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

न्याय क्या है

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शोषण मुक्त समाज की कल्पना न्याय को समझे बिना बिल्कुल नहीं की जा सकती और पूरी मानवता को सुखी और प्रकृति को सुंदर नहीं बनाया जा सकता।

न्याय का मूल आधार आर्थिक न्याय है और आर्थिक न्याय के लिए सभी प्राकृतिक संसाधनों पर सब का समान जन्मसिद्ध अधिकार स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई दूसरा आधार नहीं हो सकता। न्याय के मूल विचार में शक्ति बुद्धि या परिस्थितियों में आने वाला कोई भी परिवर्तन किसी भी व्यक्ति के मूल अधिकार में किसी प्रकार की भी अधिकता या निम्नता नहीं ला सकता और मूल अधिकार उसे ही माना जाना चाहिए जो व्यक्ति को जन्म से मृत्यु तक बिना किसी भेदभाव के समान रूप से बिना किसी कठिनाई के मिलता रहे।

हम जानते हैं कि सारे जीव जंतुओं में ही नहीं मनुष्यों में भी उनकी योग्यता क्षमता कुशलता और दूर तक सोचने या नहीं समझने को लेकर बहुत अधिक अंतर होता है और यही यथार्थ है। लेकिन न्याय तो वही माना जाएगा जो इस सच्चाई को स्वीकार करता है और सबके जन्मसिद्ध समान और स्थाई अधिकार को पूरे सम्मान के साथ स्वीकार करता है।

इसलिए हमें मानना पड़ेगा कि न्याय तो वही है जो किसी भी कारण से कमजोर या मजबूत सब के समान अधिकार को स्वीकार करता हो। अगर हम इसे नहीं स्वीकार करते हैं तो उससे जो व्यवस्था बनेगी वह "जिसकी लाठी उसकी भैंस" या "अन्याय पूर्ण व्यवस्था" होगी और उसे कुछ भी नाम देकर न्यायपूर्ण व्यवस्था नहीं कहा जा सकता।

इसलिए सारे प्राकृतिक संसाधनों पर सब के समान मूलभूत अधिकार को अपने चिंतन का आधार मानते हुए हम अपनी बात को आगे बढ़ाते हैं तो उसका निष्कर्ष यही निकलता है कि प्राकृतिक संसाधनों पर एक व्यक्ति का जन्मसिद्ध न्याय पूर्ण अधिकार केवल औसत प्राकृतिक संसाधनों पर हो सकता है और एक भी दूसरे व्यक्ति का मूलभूत अधिकार इससे कम या अधिक संसाधनों पर नहीं हो सकता। क्योंकि यदि एक भी व्यक्ति का मूलभूत संपत्ति अधिकार अगर थोड़ा सा भी अधिक स्वीकार किया जाता है तो दूसरे व्यक्ति के मूलभूत न्याय पूर्ण अधिकार में कमी आती है और यही उसका शोषण है।

इसलिए हमारे सामने न्याय पूर्ण व्यवस्था को स्थापित करने के लिए एक ही रास्ता बचता है और वह यह है कि हर व्यक्ति का जन्मसिद्ध न्याय पूर्ण अधिकार औसत सीमा तक है और यदि किसी के पास इससे अधिक संपत्ति संग्रह हो रही है तो वह उसका मालिक नहीं होता बल्कि वह व्यक्ति समाज का कर्जदार होता है और उस व्यक्ति से समाज को अधिक संपत्ति पर ब्याज की दर से संपत्तिकर लगाकर समाज का अधिकार ले लेना चाहिए और व्यवस्था के संचालन का खर्च काटकर शुद्ध लाभ को सब लोगों में बिना किसी भेदभाव के समान रूप से वितरित कर देना चाहिए और दूसरा कोई भी "कर" टैक्स नहीं लगाना चाहिए।

यह संपत्तिकर पूरी तरह न्याय पूर्ण तो होगा ही व्यवहार में अत्यंत सरल पारदर्शी और पर्याप्त भी होगा जिसे कोई भी व्यक्ति बहुत सरलता से देख और समझ भी सत्ता है और पर्याप्त होने के कारण हर व्यक्ति को उसका शुद्ध लाभ उसे बहुत ही सरलता के साथ प्रदान किया जा सकता है।

संक्षेप में मैं यह बात कहना चाहता हूं कि एक सर्वश्रेष्ठ समाज की स्थापना में बहुत बड़ी बाधा न्यायपूर्ण "कर" टैक्स प्रणाली का अभाव है। आज तो अनेक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष अनगिनत "कर"टेक्स लगे हुए हैं और सब के सब अनैतिक अन्याय पूर्ण जटिल अपर्याप्त और विनाशकारी हैं लेकिन अत्यंत सरल न्याय पूर्ण और पारदर्शी संपत्ति "कर" को पूरी दुनिया से पूरी तरह समाप्त करने का प्रयास किया जा रहा है।

यह दुष्कर्म इसलिए हो रहा है क्योंकि कुछ मुट्ठी भर पागल मूर्ख अत्याचारी अन्याय षड्यंत्कारी अपराधी दुनिया की पूरी संपत्ति पर ताकत और तिकड़म के बल पर अपना अधिकार कर चुके हैं और पूरे समाज को अनेक टुकड़ों और गिरोहों मैं बांटकर उनको आपस में लड़ आते रहते हैं और सुंदर प्रकृति का भारी विनाश करते रहते हैं। उनका यह कृत्य पूरी मानवता के लिए खतरा बना हुआ है और अत्यंत शर्मनाक कहा जाना चाहिए।

इसलिए जो लोग पूरी तरह शोषणमुक्त सुखी और समृद्ध सबके लिए सुखदाई और शांतिपूर्ण व्यवस्था बनाना चाहते हैं उन्हें आर्थिक न्याय के इसी सूत्र के आधार पर नई अर्थव्यवस्था का निर्माण करना होगा और यदि मेरी चेतावनी की उपेक्षा की गई तो आने वाला समय पृथ्वी ग्रह के अस्तित्व को नष्ट करने वाला भी हो सकता है।

संक्षेप में आर्थिक न्याय के आधार पर एक व्यक्ति को औसत सीमा तक संपत्ति संग्रह का स्थाई अधिकार मिलना चाहिए और औसत से अधिक संपत्ति के लिए व्यक्ति को समाज का कर्जदार मानना चाहिए। इसलिए अधिक संपत्ति पर ब्याज की दर से संपत्ति "कर" लगाकर हर व्यक्ति को उसमें भी समान अधिकार दिया जाना चाहिए। इसलिए ब्याज के रूप में प्राप्त राशि में से ही संपूर्ण व्यवस्था का सामूहिक खर्च कांटा जाना चाहिए और शेष शुद्ध लाभ को सब लोगों में बिना किसी भेदभाव के जन्म से लेकर मृत्यु तक वितरित करते रहना चाहिए। दूसरा कोई भी "कर" लगाने की आवश्यकता ही नहीं है।

लेकिन न्याय पूर्ण व्यवस्था में किसी प्रकार की गोपनीयता के लिए कोई भी स्थान नहीं है क्योंकि गोपनीयता ही षड्यंत्र विश्वासघात और सारे अपराधों की जड़ है इसलिए न्याय पूर्ण व्यवस्था में पूर्ण पारदर्शिता अवश्य होनी चाहिए यह उसकी आधारशिला है।

इस लंबे लेख को लेकर अनेक प्रकार के प्रश्न अनेक लोगों द्वारा उठाए जा सकते हैं लेकिन मैं अपने चिंतन अनुभव और ज्ञान के अनुसार शायद सभी प्रश्नों का उत्तर दे तो सकता हूं लेकिन मैं अपनी क्षमताओं की सीमा को भी समझता हूं और उसी सीमा के अंतर्गत आने वाले सभी सार्थक प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास जीवन भर करता रहूंगा। यह मेरा जीवन संकल्प है।

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