बाढ़ की विभीषिका --  जल प्रबंधन का अभाव 


ग्रीष्म ऋतु में जल की कमी से संत्रस्त समस्त देश आज जल की अधिकता से उत्पन्न  बाढ़ की विभीषिका से जूझ रहा है। गर्मी में देश के जिन भागों में जल का अभूतपूर्व संकट उत्पन्न हुआ था और पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ था , टैंकरों के माध्यम से येन केन प्रकारेण जलापूर्ति की जा रही थी , वहां आज अत्यधिक मात्रा में  वर्षा होने से अधिकांश भाग बाढ़ से पीड़ित होकर त्राहि-त्राहि कर रहा है ।जम्मू कश्मीर से लेकर राजस्थान ,उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश गुजरात, महाराष्ट्र एवं आसाम आदि की नदियां जल की अगाध राशि से पूरित होकर तटबंधों को तोड़ती हुई सी आगे बढ़ रही हैं और  समीपवर्ती तटवर्ती भूमि एवं संपदा को अपने आगोश में लेती हुई कहर ढा रही हैं, सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची हुई है। नदियों में आई हुई यह बाढ़ न तो अचानक आई है और न ही कल्पना एवं सोच के विपरीत  है। वर्षा ऋतु में वर्षा की अधिकता होने पर बाढ़ आने की संभावना बनी रहती है किंतु इस वर्ष पर्याप्त मात्रा में वर्षा होने से छोटी बड़ी समस्त नदियां जल से पूरित होकर अपने तटवर्ती इलाकों को जल से आप्लावित कर रही हैं। शासन एवं व्यवस्था को चाहिए था कि वह वर्षा ऋतु के आने के पूर्व ही बाढ़ की विभीषिका के समाधान हेतु तथा सफलतापूर्वक उस पर अंकुश लगाने के लिए रणनीति तैयार कर लेता किंतु शासन प्रतिवर्ष समस्या के उत्पन्न होने पर उसके समाधान की दिशा में उसके निदान के लिए प्रयास करता है , जिससे जन हानि के साथ ही साथ अपार धन संपदा की हानि भी प्रतिवर्ष हो जाती है और उसके रेस्क्यू तथा जनमानस के कल्याण में भी अपार धन राशि व्यय करनी पड़ती है । यदि शासन व्यवस्था समय रहते चेत ले तो इस बाढ़ की समस्या से स्थायी तौरपर निजात पाया जा सकता है और वर्षा के जल को सुरक्षित एवं संरक्षित कर ग्रीष्म ऋतु में जल की कमी से आने वाली आपदा से भी सफलतापूर्वक निपटा जा सकता है किंतु नीति नियंताओं की सोच एवं उनकी विचित्र कार्यप्रणाली के चलते ऐसा कुछ नहीं होता, परिणाम स्वरूप गर्मी में जहां एक और देश को जल की कमी का अपार संकट झेलना पड़ता है वहीं दूसरी ओर वर्षा ऋतु में बाढ़ की विभीषिका का सामना करते हुए अपार जन धन हानि का भी सामना करना पड़ता है ।         


जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के अनुसार भारत तीन ओर से समुद्र से घिरा होने के कारण बाढ़ की विभीषिका को लेकर अत्यधिक संवेदनशील है जिसके परिणाम स्वरूप देश के लगभग 12.5% भाग को प्रतिवर्ष बाढ़ का सामना करना पड़ता है। देश में बंगाल उड़ीसा आंध्र प्रदेश केरल असम बिहार महाराष्ट्र गुजरात उत्तर प्रदेश हरियाणा और पंजाब छत्तीसगढ़ तथा मध्य प्रदेश ऐसे राज्य हैं, जिनमें बाढ़ का  प्रकोप प्रतिवर्ष देखने को मिलता है। वर्षा जल की अधिकता से अनेक शहर करते टापू से नजर आने लगते हैं और मुंबई जैसे शहर की सड़कें पूरी तरह से जल से भरी होती हैं। शहरी जीवन अस्त व्यस्त हो जाता है तथा जीवन को प्रकृति से चुनौती मिलने लगती है। प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ से राज्य के बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में निरंतर वृद्धि हो रही है। प्रतिवर्ष उत्तर प्रदेश का लगभग 7.33 लॉख हेक्टेयर क्षेत्र जल से डूब जाता है। इसी प्रकार बिहार में 4.26 लाख हेक्टेयर, पंजाब में 3.7 लाख हेक्टेयर, राजस्थान में 3.26 लाख हेक्टेयर, आसाम में 3.15 लाख हैक्टेयर ,बंगाल में 2.6 5 लाख हेक्टेयर, उड़ीसा में 1.4 लाख हेक्टेयर और आंध्र प्रदेश में  1.39 लाख हेक्टेयर केरल में 0.87 लाख हेक्टेयर, तमिलनाडु में 0.4 5 लाख हेक्टेयर, त्रिपुरा में 0.33 लाख हेक्टेयर  तथा मध्य प्रदेश में 0.2 6 लाख हेक्टेयर भूमि बाढ़ से प्रभावित होती है। इन राज्यों की ही भांति हिमांचल प्रदेश का 0.23 लाख हेक्टेयर  महाराष्ट्र का 0. 23 लाख हैक्टेयर ,जम्मू कश्मीर का 0.1 लाख हेक्टेयर,मणिपुर का 0.08 लाख हैक्टेयर , दिल्ली का 0.08 लाख हेक्टेयर,कर्नाटक का 0.02 लाख हेक्टेयर ,मेघालय का 0.02 लाख हेक्टेयर , पांडिचेरी का 0.01लाख हेक्टेयर क्षेत्र को बाढ़ प्रतिवर्ष प्रभावित करती है ।इस तरह देश में प्रतिवर्ष 35.51 लाख हेक्टेयर भूमि की कृषि प्रतिवर्ष बाढ़ से सामान्यतया प्रभावित होती है , जहां की फसलें पूरी तरह बर्बाद हो जाती है सामान्यतया बाढ़ के प्रकोप से देश की 81.11 लाख हेक्टेयर भूमि प्रतिवर्ष प्रभावित होती है, जहां कम से कम 13 अरब 40करोड़ का नुकसान पहुंचता है। बाढ़ के प्रकोप से  प्रतिवर्ष लगभग 1600 व्यक्तियों की मौत होती है और 95000 जानवर काल के गाल में समा जाते हैं। यह आंकड़ा वर्ष में होने वाली सामान्य वर्षा का है किंतु जिन वर्षों में वर्षा सामान्य सेअधिक होती है उन वर्षों में समस्त राज्यों में बाढ़ प्रभावित क्षेत्र भी काफी बढ़ जाता है तथा वहां जनधन की अपार हानि होती है। वर्षा जब प्रतिवर्ष होती है और उसे होना ही है तो उसके प्रभाव से आने वाली संभावित बाढ़ के रोकथाम के लिए पूर्व में ही सार्थक प्रयास क्यों नहीं किए जाते। मानसून आते ही देश के कई  हिस्से डूबने लगते हैं। आज  असम बिहार गुजरात और महाराष्ट्र के अनेक भागों में  बाढ़ जनित आपदा से कोहराम मचा हुआ है, और यह स्थिति तब है जब अभी मानसून का एक माह भी पूरा नहीं हुआ है, मानव की तो बात छोड़िए जानवर भी जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में कृषि को तो यह बाढ़ समाप्त ही कर चुकी है ,घर में रखा हुआ सामान भी लगभग बर्बाद हो चुका है। यह तो अभी शुरुआत है  कुछ दिन बाद  पूर्वी उत्तर प्रदेश व देश की अन्य अनेक नदियां खतरे के निशान से ऊपर पहुंच विकराल स्वरूप ग्रहण कर अपनी  विनाश लीला का प्रदर्शन करेंगी। अभी तो गंगा यमुना एवं उसकी सहायक नदियों में बाढ़ आई ही नहीं। अभी लगभग 1 माह पूर्व जिस पानी की एक एक बूंद के लिए देश में मारा मारी थी और लोग उसकी कमी से बेहाल थे, आज वही पानी काल का रूप दिख रहा है। विडंबना है, देश में यह पानी जहां एक ओर गर्मी में अपने अभाव से जनजीवन को अस्त व्यस्त कर देता है वही वर्षा ऋतु में जीवन के समक्ष प्रश्नचिन्ह बनकर खड़ा होता है और यह स्थिति तब है जबकि देश के किसी भी हिस्से में अतिवृष्टि जैसे हालात नहीं है। अभी देश के हर क्षेत्र में वर्षा सामान्य ही हुई है कहीं भी अतिवृष्टि नहीं हैं , फिर भी अनेक राज्यों में बाढ़ की समस्या से त्राहि-त्राहि मची हुई है। जनजीवन अस्त व्यस्त हो चुका है। वस्तुत: इस स्थिति के जिम्मेदार हम स्वयं हैं। नदियों के तटवर्ती क्षेत्र में अतिक्रमण कर उनके जल प्रवाह के क्षेत्र को अत्यंत संकरा कर दिया गया है, इतना ही नहीं अतिक्रमण की प्रवृत्ति ने अनेकानेक नदियों को तो समाप्त ही कर दिया है। अब अनेक नदियां काल के गाल में समा चुकी हैं , मात्र उनका नाम ही शेष है। अन्य ऋतु में जल की कमी तथा एक एक बूंद के लिए तरसते लोग इन नदियों का स्मरण करते हैं किंतु वर्षा ऋतु आते ही इन नदियों के माध्यम से बह जाने वाला पानी मार्ग न पाकर पूरे क्षेत्र को जलाप्लावित्त कर देता है जिससे बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है । रही सही कसर नदियों की तलहटी में जमा हुई गाद के प्रभाव से उनकी कम होती गहराई पूरा कर देती है। पहले की सामाजिक व्यवस्था में वर्षा जल को नियंत्रित करने के लिए अनेक व्यवस्थाएं की जाती थी। तालाब पोखर झील  कुआ बावड़ी इत्यादि का निर्माण कराया जाता था,  जिससे वर्षा का जल पहले जल स्रोतों में इकट्ठा होता था तथा  अवशोषित होकर भूगर्भ में पहुंचता था, उसके बाद जो जल बचता था वह बहकर नदियों में पहुंचता था किंतु अब जल के इन केंद्रों के न रहने के कारण बरसात होते ही सीधे नदियों में पहुंचता है, जिससे सामान्य वर्षा में भी बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जबकि पहले यह स्थिति नहीं उत्पन्न हो पाती थी। वर्षा के जल के अनेकानेक जल केंद्रों में संग्रहीत हो जाने से भूगर्भ का जलस्तर निरंतर बढ़ता रहता था, जिससे जहां एक ओर वर्ष पर्यंत जल की कमी नहीं हो पाती थी वहीं दूसरी ओर वर्षा जल सीधे नदियों में न पहुंचने के कारण बाढ़ की विभीषिका भी उत्पन्न नहीं होती थी किंतु अब स्थिति बदल चुकी है तालाब पोखर आदि अपना अस्तित्व खो चुके हैं  कुंआं बावड़ी कहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं।  फलत:वर्षा का जल अप्रतिहत गति से चलकर सीधे नदियों में मिलता है और बाढ़ की स्थिति उत्पन्न करता है ।बाढ़ की विकराल स्थिति में नियंत्रण के लिए हमें अपनी सोच तथा जल प्रबंधन के ताने-बाने को दुरुस्त कर उसे नए सिरे से गठित करना होगा ,तभी नदियां हमारे लिए जीवनदायिनी बनकर प्रवाहित होगी और काल का स्वरूप ग्रहण नहीं करेंगी।


नदियों में तटबंध एवं बांध  बनाने की  असीमित योजनायें ,  तटवर्ती क्षेत्रों में अनवरत बढ़ रही आवासीय गतिविधियों तथा खनिज पदार्थों के लिए नदियों के गर्भ के अधाधुंध दोहन से उनका प्रवाह मार्ग बाधित हो जाता है । आज विकास के नाम पर नदी नालों पर छोटे बड़े बांध बनाने तथा छोटी-छोटी नदियों में भी चेक डैम बनाकर उनके पानी को रोकने का प्रयास किया जाता है,  जिसके दुष्प्रभाव पूरे देश में देखने को मिल रहे हैं, अबाध शहरीकरण की प्रक्रिया वनविनाश और खनन को बढ़ावा देती हुई कंक्रीट केजंगल उगाने में लगी हुई है। निरंतर नए-नए कंक्रीट के जंगल उग रहे हैं तथा वृक्ष एवं वन गायब हो रहे हैं, जिससे धरती की पानी सोखने की क्षमता कम हो रही है और पानी के बहाव की गति काफी बढ़ रही है जिससे वर्षा का जल प्रबल वेग से बहकर व्यर्थ में बह जाने के लिए नदियों में चला जाता है।परिणाम स्वरूप नदियां रौद्र रूप धारण करती हैं, उनकी  इस स्थिति के लिए उनका निरंतर दोहन करने वाला समाज ही उत्तरदायी है , वस्तुत इसके लिए हम ही उत्तरदायी और हम ही इससे पीड़ित हैं और हमें ही इससे बचाव के रास्ते खोजने हैं। बाढ़ से नदियों की गाद तटवर्ती क्षेत्रों में फैलकर खेतों में बिछ जाती है तब वह प्राकृतिक खाद का कार्य कर खेतों में सोना उगलती है किन्तु वही गाद जब जल की धारा में निरंतर जमा होती रहती है तब वह  नदी के प्रवाह की गहराई को बाधित कर देती है जिससे जिससे जल की अधिकता होने पर नदी का पानी तटवर्ती क्षेत्रों में फैलता है और विनाशकारी बाढ़ आती है। अभी तक नदियों के जल प्रवाह क्षेत्र की समस्या को लेकर एक मात्र गंगा नदी के संदर्भ में अध्ययन कार्य हुआ है। गंगा नदी देश की सबसे बड़ी नदी है जिसका बेसिन  सबसे बड़ा बेसिन है और देश की 45% आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस पर निर्भर है लेकिन गाद की समस्या से गंगा भी संत्रस्त है ।भारत सरकार के जल संरक्षण नदी विकास और गंगा मंत्रालय के अंतर्गत गठित एक कमेटी ने अध्ययन कर   रिपोर्ट प्रस्तुत की है जिसमें उत्तराखंड से पश्चिम बंगाल तक गंगा नदी में अतिक्रमण और जमा होने वाली गाद का अध्ययन कर  उत्तराखंड के भीमगोड़ा से लेकर पश्चिम बंगाल के फरक्का बांध तक गंगा को गाद से मुक्त करने के लिए दिशा निर्देश दिए गए हैं, रिपोर्ट के अनुसार प्रतिवर्ष 41.3 करोड़ टन गाद जमा होती है।हिमालय से निकलकर  गंगा में मिलने वाली  अनेक छोटी नदियां अपने साथ 90% गाद लेकर आती हैं । पश्चिम बंगाल में फरक्का बांध के निर्माण के बाद से गंगा में गाद जमा होने की समस्या बढ़ गई है ,इससे बिहार में बाढ़ का स्तर बढ़ गया है ।फरक्का बांध ने कोलकाता बंदरगाह में गाद कम करने में कोई भूमिका नहीं निभाई , जिसके परिणाम स्वरूप गाद की अधिकता के कारण पानी की गहराई कम होने से हिलसा जैसी देसी मछलियों की संख्या भी काफी कम हो गई है। इससे क्षेत्र का पर्यावरणीय संतुलन  भी बिगड़ रहा है। गंगा के जल प्रवाह क्षेत्र में अत्यधिक मात्रा में गाद जमा होने का परिणाम है बिहार में गंगा में भयानक बाढ़ का आना, जिस से निजात पाने के लिए आवश्यक है गंगा के बेसिन में जमा गाद के स्तर को कम से कम किया जाए तथा उसे प्रतिवर्ष जमा होने से रोका जाए।
बाढ़ नियंत्रण के लिए वर्षा जल का संरक्षण एवं उसका प्रबंधन अनिवार्य आवश्यकता है जिसके अभाव में बाढ़ को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। बड़े बड़े बांध बना कर  न केवल नदी में बहने वाले पानी को रोका जाता है  अपितु जीवनदायिनी नदी के जीवन को भी समाप्तप्राय कर दिया जाता है। बांध बंधने से वह पहले तो समाप्त  ही हो जाती हैं,यदि दैवयोग से थोड़ी बहुत बचती भी है तो उनका जल किसी काम का नहीं रह जाता, बल्कि प्रदूषित होकर  जीवन के लिए खतरा बन जाता है। आज प्रदूषण से ग्रस्त अनेक नदियां इसका उदाहरण है । देश की सबसे बड़ी नदी गंगा भी इससे अछूती नहीं है ,अरबों रुपए खर्च कर देने के बाद भी अभी तक उसे निर्मल नहीं बनाया जा सका है। वस्तुत: स्थान स्थान पर तालाब पोखर झील बावड़ी कुआं आदि बनाकर वर्षा के जल को प्रकृति एवं  जीवन की रक्षा के लिए संरक्षित किया जा सकता है जैसा कि पूर्व में हमारे पूर्वजों द्वारा किया जाता रहा है प्राकृतिक तथा मानव निर्मित केंद्रों में जल इकट्ठा होकर धीरे धीरे अवशोषित हुआ होता हुआ भूगर्भ जल स्तर को काफी बढ़ा देता है, जिससे जल की समस्या का समाधान भी हो जाता है। इसके लिए आवश्यक है की वर्षा के जल को नदियों तक पहुंचकर व्यर्थ में न बहने दिया जाए और उसे येन केन प्रकारेण संरक्षित कर भूगर्भ में  पहुंचाने के लिए प्रयास किया जाए, जिसके लिए भूजल एक्वीफर्स प्राकृतिक रूप से मिले वरदान हैं। वनाच्छादित भूमि प्राकृतिक रूप से जल का संग्रहण कर भूगर्भ के जल स्तर को ऊपर बनाए रखने में सर्वाधिक योगदान देती है, जिसे दृष्टिगत रखते हुए जल संरक्षण हेतु वनों के संरक्षण एवं संवर्धन की आवश्यकता है। वस्तुतः जल संरक्षण और उसका कुशल प्रबंधन ही बाढ़ पर नियंत्रण प्राप्त करने का एक मात्र साधन है जिसके लिए सर्वप्रथम वनों के विनाश पर रोक, शहरीकरण के नाम पर मनमाने ढंग से उग रहे कंकरीट के जंगलों पर प्रतिबंध, नदियों के गर्भ से खनिजों का आधा धुंध दोहन  to by उनके प्राकृतिक प्रवाह मार्ग को बाधित करने से रोककर उन्हें अपनी गति से प्रवाहित होने देना जैसे कार्य कर सफल जल प्रबंधन करते हुए बाढ़ की विभीषिका को रोका जा सकता है, अन्यथा स्थिति में वर्षा का असीमित जल अनियंत्रित रूप से नदियों में पहुंच कर बाढ़ की विभीषिका को ही मूर्त रूप देगा जो प्रतिवर्ष मानव सभ्यता और संस्कृति के समक्ष  चुनौती के रूप में उपस्थित रहेगी।


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