आपातकाल 1975 - अंतिम भाग,सत्ता के नशे में लोकतंत्र की हत्या

संविधान , संसद , न्यायालय, प्रेस, लोकमत और राजनीतिक शिष्टाचार इत्यादि की धज्जियां उड़ा कर देश में आपातकाल की घोषणा का सीधा अर्थ था निरंकुश सत्ता की स्थापना अर्थात ,वकील , दलील और अपील सब समाप्त और उधर इस सरकारी अत्याचार के विरुद्ध देशवासियों द्वारा सड़को पर उतर कर सत्ता प्रेरित दहशतगर्दी के विरुद्ध संगठित जन संघर्ष का बिगुल बजाने का सीधा अर्थ था – सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।


राष्ट्रवादी कवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता की यह पंक्ति सत्याग्रहियों का महामंत्र बन गई थी| देश के विभाजन (स्वतंत्रता) के पूर्व जिस तरह से वन्देमातरम गीत स्वतंत्रता सेनानियों को सर्वस्व त्याग की प्रेरणा देता था उसी प्रकार इस गीत ने देशवासियों को तगड़ा अहिंसक प्रतिकार करने की प्रेरणा दी। यह प्रतिकार देश के प्रत्येक कोने में जम कर हुआ। एक तरफा पुलिसिया कहर भी राष्ट्र भक्ति के इस युवा उफान को रोक नही सका।  देश भर की जेले लक्षावधि सत्याग्रहियों के लिए छोटी पड गई। जेलों के अंदर खुले मैदान में तम्बू लगा दिए गये। दृश्य ऐसा था मानो किसी कुम्भ के मेले में तीर्थ यात्री ठहरे हो।


सार्वजनिक स्थानों का सरकारी आज्ञायों ( दफा 144 इत्यादि ) का खुला उलंघन करके, गिरफ्तार होकर पुलिस हिरासत में यातनाएं सहकर , पुलिस की गाडियों में भेड़ बकरियों की तरह ठूस कर, रात के अँधेरे में सत्याग्रही जब जेल के निकट पहुचते थे तो उनके गगन भेदी उद्घोषों से सारी बस्ती और पहले से ही जेल में पहुचे हुए सत्याग्रही जाग जाते थे। खोलो – खोलो जेल के फाटक – सरफरोशी आए है , भारत माता की जय , इन्कलाब जिंदाबाद , समग्र क्रान्ति अमर रहे इत्यादि नारे जेल के अंदर से भी गूंज उठते थे। तिहाड़ जेल दिल्ली में तीन हजार से ज्यादा सत्याग्रही बंद थे।


देश भर की जेलों में कांग्रेस को छोड़ कर शेष सभी विपक्षी दलों के लोग थे। सबसे ज्यादा संख्या (लगभग 95%) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक थे। सभी सत्याग्रही ‘ लोक संघर्ष समिति ’ और ‘ युवा छात्र संघर्ष समिति ’ के नाम और झण्डे तले अपनी गतिविधियों को अंजाम देते थे। जेलों में पहुंच कर भी सभी ने समरसता, एकता एवं अनुशासन का परिचय दिया। विभिन्न दलों तथा विचारो के सत्याग्रहियों का एक ही उद्देश्य था तानाशाही को समाप्त करके लोकतंत्र की पुन: बहाली करना।


जेल यात्रा करने वाले राजनीतिक कैदियों की कई श्रेणीयां थी। प्रथम श्रेणी उनकी थी जिन्हें 25 जून 1975 की रात्रि को ही घरो से निकल कर गिरफ्तार कर लिया गया था। जय प्रकाश नारायण , अटल बिहारी वाजपेयी , लालकृष्ण आडवाणी , सुरेन्द्र मोहन , प्रकाश सिंह बादल इत्यादि बड़े – बड़े सैकड़ो नेताओ के साथ लगभग 20 हजार कार्यकर्ताओं को मीसा ( मेनटेनैंस ऑफ़ इंटरनल सिक्यूरिटी एक्ट ) के तहत देश की विभन्न जेलो में डाल दिया गया।


दूसरी श्रेणी उन लोगो की थी जो भूमिगत रह कर सारे आन्दोलन का संचालन कर रहे थे। ऐसे लोगो को पकड़ने के लिए पुलिस को बहुत परिश्रम करना पड़ता था। इन कार्यकर्ताओ ने अपने ठहरने , इत्यादि के गुप्त ठिकाने बनाए हुए थे। ऐसे भूमिगत कार्यकर्ता अपने घरो में न ठहर कर अपने मित्रो , दूर के रिश्तेदारों और होटलों में रह कर जन आन्दोलन की गतिविधियों का संचालन करते थे। इस तरह से गिरफ्तार होने वालो की संख्या बहुत कम थी। इनमे ज्यादातर तो संघ के प्रचारक ही थे जिनके नाम , स्थान, ठिकाने की जानकारी लेना पुलिस के लिए भारी सिर दर्द बन गया था। सब ने अपने नाम , वेश – भूषा , भाषा इत्यादि  बदल लिए थे।


जेलों में बंद इन स्वतंत्रता सेनानियों की तीसरी श्रेणी वह थी जो योजनाबद्ध सार्वजनिक स्थानों पर सत्याग्रह करके जेलों में जाते थे। ऐसे लोगो की संख्या लगभग 2 लाख थी। इनकी संख्या के कारण ही जेल प्रशासन को तंबू लगाने की आवश्यकता पड़ी। इन्ही सत्याग्रहियों ने वास्तव  में प्रत्येक प्रकार के कष्टों को सह कर तानाशाही सरकार को घुटने टेकने के लिए बाध्य कर दिया था। इस श्रेणी के स्वतंत्रता सेनानी 15 वर्ष से 25 वर्ष तक की आयु के युवा विद्यार्थी थे। संघ की शाखाओ से राष्ट्र के लिए सर्वस्व समर्पण की भावना से संस्कारित इन युवाओ की मस्ती भी देखने योग्य थी।


उपरोक्त तीन श्रेणियों के अतिरिक्त एक ऐसी श्रेणी भी थी , जिसने ना तो भूमिगत रह कर आन्दोलन के लिए कोई काम किया और ना ही सत्याग्रह करके जेल गए। आपातकाल की घोषणा होते ही यह लोग हरिद्वार इत्यादि स्थानों पर जा छिपे, अपने रिश्तेदारों के घरो में चल गये , कुछ विदेश भाग गए और अपने सुरक्षित बिलों में राम – राम जपने लग गये। यद्यपि ऐसे भीरु लोगो की संख्या नगण्य ही थी तो भी इनमे से अधिकाँश को पुलिस वालो ने ढूंढ-ढूंढ कर गिरफ्तार करके जबरन जेल यात्रा करवा दी।


आन्दोलनकरियो की एक पांचवी श्रेणी थी जो भूमिगत रह कर आन्दोलन का संचालन करते रहे , जेल में गए अपने साथियो के परिवारों की देखरेख करते रहे। ऐसे भूमिगत कार्यकर्ता अंतिम दम तक पुलिस के हाथ नही आए। इन लोगो के संगठन कौशल , सूझ – बूझ और बुद्धिमत्ता का लोहा सभी ने स्वीकार किया। ऐसे नेताओं ( संघ के अखिल भारतीय अधिकारी ) के प्रयासों से ही जनता दल अस्तित्व में आया था।


जेल यात्रा करने वाले कार्यकर्ताओ की जेल में आदर्श , अद्भुत मस्ती भरी दिनचर्या का उल्लेख किये बिना यह लेख अधुरा ही रह जाएगा। प्रात: से रात्रि तक शारीरिक एवं बौद्धिक कार्यक्रमों में व्यस्त आनंदपूर्वक रहने वाले इन सरफरोशियों ने जेल को एक अनिश्चितकालीन प्रशिक्षण शिविर बना दिया।


प्रातः सामूहिक प्रातः स्मरण एवं प्रार्थना , एक साथ आसन, प्रणायाम , रोचक व्यायाम, स्नान के बाद आरती , फिर अल्पाहार , हवन अथवा रामायण पाठ , सहभोज, विश्राम के बाद नित्य प्रवचन अथवा बौद्धिक वर्ग , सायं को शाखा कार्यक्रम , रात्रि भोजन के पश्चात नियमित भजन कीर्तन , इस तरह से जेल यात्रा में भी तीर्थ यात्रा का आनंद लेते हुए इन सरफरोशी कार्यकर्ताओ ने एक साथ सामूहिक जीवन जीने और अपने संस्थागत संस्कारों भी निंरतरता बरकरार रखी। जेल के बाहर भूमिगत कार्यकर्ताओ की तपस्या और जेल में बंद कार्यकर्ताओ की आनंदमयी साधना के फलस्वरूप देश को आपातकाल की निरंकुशता से छुटकारा मिल गया । ..... समाप्त।                 


 वरिष्ठ पत्रकार तथा लेखक


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