जल संकट और जलवायु परिवर्तन

 


विश्व जल दिवस पर


त 22 मार्च को विश्व जल दिवस था। प्रतिवर्ष उत्पन्न होने वाले जल संकट और नित्य प्रति उसकी हो रही कमी को दृष्टि में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 1992 में रियो डी जेनेरियो में आयोजित पर्यावरण तथा विकास से संबंधित अधिवेशन में 


विश्व जल दिवस मनाने की पहल की गई थी, जिसको स्वीकार कर 22 मार्च 1993 को सर्वप्रथम विश्व जल दिवस मनाते हुए आसन्न  जल संकट एवं उससे बचाव के रास्ते खोजने पर विचार किया गया, तब से निरंतर 22 मार्च को संयुक्त राष्ट्र के निर्देशन में विश्व जल दिवस मनाते हुए जल को संरक्षित करने तथा शुद्ध पेयजल की पर्याप्त मात्रा की उपलब्धता सुनिश्चित करने तथा प्रत्येक प्राणी को स्वच्छ जल उपलब्ध कराने की दिशा में कार्य किया जा रहा है,किंतु विडंबना है कि समस्त विश्व का हो रहा औद्योगीकरण तथा जल स्रोतों का निरंतर दोहन, जल की मात्रा को निरंतर कम करता जा रहा है, जल संरक्षण की दिशा में धरातल पर कोई  ठोस कार्य परलक्षित नहीं हो रहा है, जबकि विश्व जल दिवस जल बचाने का संकल्प दिवस है और इस दिन संयुक्त राष्ट्र के निर्देशन में समस्त विश्व जल बचाने का संकल्प लेकर उस दिशा में कार्य करते हुए उसे मूर्त रूप देने का योजनाबद्ध निर्णय लेता है। यद्यपि प्रकृति अब तक हमें निरंतर आवश्यकतानुसार जल उपलब्ध कराती रही है किंतु उसके अंधाधुंध दोहन के कारण स्वच्छ जल की उपलब्धता अत्यंत कम होती जा रही है। विश्व के लगभग डेढ़ अरब लोगों को पीने का शुद्ध पानी नहीं मिल रहा है। पानी की कमी के चलते वातावरण एवं जलवायु चक्र निरंतर प्रभावित हो रहा है ।फलस्वरूप जलवायु परिवर्तन की समस्या भी नित्य प्रति सामने आ रही है ।जल एवं जलवायु का अनन्यतम संबंध है ।दोनों एक दूसरे के सहयोगी एवं पूरक हैं, दोनों अन्योन्याश्रित हैं। आज पूरा विश्व वाटर इज क्लाइमेट एंड क्लाइमेट इज वाटर की बात पूरी तरह से स्वीकार कर रहा है। इनमें से किसी में भी परिवर्तन होने से दूसरे का प्रभावित होना अनिवार्य है। 
क्षेत्र विशेष में विद्यमान जल की मात्रा वहां के वातावरण को ही नहीं अपितु पूर्ण जलवायु को भी प्रभावित करती है, जल की मात्रा के कम या अधिक होने से जलवायु में निरंतर परिवर्तन भी होता रहता है, जिसे देखते हुए 20 मार्च 2020 को मनाए जाने वाले विश्व जल दिवस की थीम भी जल और जलवायु परिवर्तन ही संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा निश्चित की गई थी और जल और जलवायु के संबंध पर विचार करते हुए जलवायु परिवर्तन से प्रकृति एवं जीवन में पड़ रहे दुष्प्रभावों पर नियंत्रण पाने की दिशा में कार्य करने का निश्चय किया गया था।क्षेत्र विशेष में विद्यमान जल न केवल जलवायु पर नियंत्रण रखता है अपितु उसे परिवर्तित होने से भी रोकता है, किंतु वर्षा जल एवं भूगर्भ के जल स्तर में निरंतर हो रही कमी से उत्पन्न जल संकट आज स्वयं विकराल समस्या के रूप में सामने है। अनियंत्रित औद्योगीकरण तथा कृषि उत्पादन में निरंतर बढ़ोतरी के लिए भूजल का अत्यधिक दोहन भूगर्भ के जल स्तर को निरंतर कम करता जा रहा है । भूगर्भ के जल स्तर में हो रही निरंतर कमी से वातावरण भी प्रभावित हो रहा है। पानी की अधिकता से वातावरण जहां नम एवं शीतल होता है, वहीं उसकी कमी हो जाने पर वातावरण में अत्यधिक गर्मी तथा तापमान बढ़ जाता है।फलस्वरूप जलवायु में परिवर्तन परिलक्षित होता है। यद्यपि जलवायु परिवर्तन के मूल में अनेकानेक कारण है जिनमें ग्रीन हाउस गैसें ,अनियंत्रित औद्योगिकरण, पृथ्वी का बढ़ता हुआ तापमान आदि प्रमुख हैं किंतु उनमें सर्व प्रमुख है भूगर्भ में विद्यमान जल की कमी। भूजल का संरक्षण कर उसमें वृद्धि करते हुए जलवायु परिवर्तित करने वाले अन्य कारणों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। यदि भूगर्भ का जल स्तर बढ़कर पर्याप्त  हो जाए और वातावरण पर्याप्त नम हो जाए तो जलवायु परिवर्तन के अन्य कारण अप्रासंगिक हो जाएंगे तथा वह जलवायु परिवर्तन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा पाएंगे। ऐसी स्थिति में जलवायु को पृथ्वी के अनुकूल बनाए रखने के लिए जल संरक्षण की परम तथा प्रमुख आवश्यकता है।
पृथ्वी का 70% भाग जल से भरा है जिसमें एक अरब चालीस घनलीटर पानी विद्यमान है, जल की इतनी विशाल राशि उपलब्ध होने के बावजूद इसमें पीने योग्य मीठे पानी की मात्रा अत्यंत कम है। पृथ्वी में विद्यमान जल का 97.3% भाग समुद्र का खारा  जल है शेष 27% पीने योग्य जल है। पीने योग्य जल का 75.2% जल ध्रुवीय क्षेत्रों में तथा 22.6% भूगर्भ में जल के रूप में स्थित है, शेष 2.2 प्रतिशत पीने योग्य जल नदियों झीलों  आदि के रूप में पाया जाता है , जिसका 60% भाग कृषि एवं उद्योगों के द्वारा प्रयोग में लाया जाता है शेष 40% सीधे पीने आदि के उपयोग में लाया जाता है। 
द वर्ल्ड रिसर्च इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के अनुसार भारत सहित 17 अन्य देशों में पानी की समस्या अत्यंत गंभीर है। यह समस्त देश गंभीर जल संकट का सामना कर रहे हैं ,अगर इस समस्या पर शीघ्र ध्यान नहीं दिया जाता तो इन देशों में पानी की एक बूंद भी नहीं बचेगी। डब्ल्यू आर आई ने  भूजल भंडार और उसमें आ रही निरंतर कमी ,बाढ़ और सूखे के खतरे के आधार पर विश्व के 189देशो को वहां पर उपलब्ध पानी को दृष्टि में रखकर  श्रेणी बद्ध किया है। जल संकट के मामले में भारत विश्व में 13वें स्थान पर है ।भारत के लिए इस मोर्चे पर चुनौती बड़ी है, क्योंकि उसकी आबादी जल संकट का सामना कर रहे अन्य समस्याग्रस्त 16 देशों से 3 गुना ज्यादा है। रिपोर्ट के अनुसार भारत के उत्तरी भाग में जल संकट भूजल स्तर के अत्यंत नीचे चले जाने के कारण अत्यंत गंभीर है। यहां पर जल संकट  'डे जीरो' के कगार पर है,इस स्थिति में नलों का पानी भी सूख जाता है। विगत दिनों बंगलौर एवं चेन्नई में यह स्थिति उत्पन्न हो गयी थी।कम हो रही वर्षा तथा निरन्तर गिरते भूगर्भ जल स्तर को देखते हुये निकट भविष्य में सम्पूर्ण भारत, विशेष रूप से उत्तर भारत में पानी की अत्यन्त कमी अतिशीघ्र होने वाली है। आज देश के अनेक भागों में जल की अनुपलब्धता के कारण आंदोलन और संघर्ष हो रहे हैं।दक्षिण भारत के चेन्नई से लेकर उत्तर भारत के अनेक शहरों में पेयजल की समस्या मुंह बाए खड़ी है। देश के लगभग 70% घरों में शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं है ।लोग प्रदूषित पानी पीने के लिए बाध्य हैं,जिसके चलते लगभग 4 करोड़ लोग प्रतिवर्ष प्रदूषित पानी पीने से बीमार होते हैं तथा लगभग 6 करोड लोग फ्लोराइड युक्त पानी पीने के लिए विवश हैं। देश में प्रतिवर्ष लगभग 4000 अरब घन मीटर पानी वर्षा के जल के रूप में प्राप्त होता है किंतु उसका लगभग 8% पानी ही हम संरक्षित कर पाते हैं, शेष पानी नदियों ,नालों के माध्यम से बहकर समुद्र में चला जाता है।  हमारी सांस्कृतिक परंपरा में वर्षा के जल को संरक्षित करने पर विशेष ध्यान दिया गया था, जिसके चलते स्थान स्थान पर पोखर ,तालाब, बावड़ी, कुआं आदि निर्मित कराए जाते थे , जिनमें वर्षा का जल एकत्र होता था तथा वह वर्ष भर जीव-जंतुओं सहित मनुष्यों के लिए भी उपलब्ध होता था,  किंतु वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर इन्हें संरक्षण न दिए जाने के कारण अब तक लगभग 4500 नदियां तथा 20000 तालाब झील आदि सूख गई हैं तथा वह भू माफिया के अवैध कब्जे का शिकार होकर अपना अस्तित्व गवा बैठे हैं ।फलस्वरूप उनके पानी में औद्योगिक फैक्ट्रियों से निकलने वाले गंदे पानी कचड़े के मिल जाने से उन का जल इतना प्रदूषित हो गया है कि उसको  पीना तो बहुत दूर स्नान करने पर भी अनेक रोगों से ग्रस्त हो जाने का खतरा विद्यमान है। देश की सबसे पावन नदी गंगा कुंभ के अवसर पर भले ही स्नान योग्य जल से युक्त रही हो ,किंतु आज वह फैक्ट्रियों के कचड़े एवं उनके छोड़े गए प्रदूषित पानी के प्रभाव से गंदे पानी की धारा बन गई है , जिस में स्नान करने से पूर्व श्रद्धालु से श्रद्धालु व्यक्ति को भी अनेक बार सोचना पड़ जाता है। भारत की कृषि पूर्णतया वर्षा जल पर निर्भर है। वर्षा पर्याप्त होने पर सिंचाई के अन्य साधन सुलभ हो जाते हैं किंतु वर्षा न होने पर सभी साधन जवाब दे देते हैं और कृषि सूखे का शिकार हो जाती है। चीनी उत्पादक महाराष्ट्र एवं उत्तर प्रदेश के किसान निरंतर गन्ने की खेती पर बल दे रहे हैं और सरकार भी गन्ना उत्पादन के लिए उन्हें प्रोत्साहित कर रही है ।इसी प्रकार धान की खेती के लिए पंजाब छत्तीसगढ़ उत्तर प्रदेश इत्यादि अनेक राज्य धान की फसल का क्षेत्रफल निरंतर बढ़ाते जा रहे हैं किंतु उसके लिए पानी प्राप्त न होने के कारण वह पानी भूगर्भ से निकाल कर खेतों को सींचा जा रहा है जिससे भूगर्भ में स्थित जल का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है, जिस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा और पानी की समस्या निरंतर बढ़ती जा रही है।, स्पष्ट है कि जल प्रदूषण के अनेक स्रोत हैं जो सामूहिक रूप से जल को प्रदूषित करते हैं। इनमें प्रमुख हैं शहरीकरण के परिणाम घरेलू सीवेज, अनियंत्रित तथा हरित क्रांति के परिणामस्वरूप पानी पर अवलंबित खेती एवं औद्योगिक अपशिष्ट तथा कृषि कार्यों में अत्यधिक प्रयोग में लाए गए कीटनाशक ,जल में घुल मिलकर भूगर्भ के जल को  अत्यधिक मात्रा में प्रदूषित कर रहे है ,जिससे निजात पाने के संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान यह घोषणा की थी कि पुनः सत्ता में आने पर खेती को पानी तथा हर घर को सन 2024 तक नल  के माध्यम से पीने का पानी उपलब्ध कराया जायेगा, जिस को दृष्टि में रखते हुए हर खेत को पानी के साथ हर घर को भी नल के माध्यम से पेयजल उपलब्ध कराने तथा सूख रही नदियों को पुनर्जीवित करने, नदियों में विद्यमान प्रदूषण को समाप्त करने तथा स्वच्छ जल स्रोतों को पुनर्जीवित करने ,के उद्देश्य से जल शक्ति मंत्रालय का गठन किया गया है, जल शक्ति मंत्रालय द्वारा जन सहयोग के साथ सरकारी व्यवस्था के अंतर्गत जल संरक्षण योजना को मूर्त रूप देने का कार्य विचाराधीन है ।संभव है वह निकट भविष्य में मूर्त रूप ले।
पानी की गंभीर समस्या को देखते हुए आज जल संरक्षण हेतु जन आंदोलन की प्रबलआवश्यकता है क्योंकि पानी की कमी से प्रभावित होने वाले क्षेत्र की सीमा निरंतर बढ़ती ही जा रही है। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है  पानी बचाने के लिए और उसे सुरक्षित करने के लिए हरसंभव उपाय किए जाने की आवश्यकता है। प्रध
देशवासियों  के सामर्थ्य ,सहयोग और संकल्प से  मौजूदा जल संकट का समाधान प्राप्त कर लिया जाएगा, किंतु जल संरक्षण के तौर-तरीकों को प्रयोग में लाने के लिए सरकारी तंत्र की भूमिका बहुत आशा जनक नहीं है। यद्यपि सरकार ने विभिन्न राज्यों में जल संरक्षण संबंधी नियम कानून बना रखे हैं लेकिन व्यवहार में वह नियम कानून कागजों तक ही सीमित है ,क्योंकि सरकारी तंत्र जल संरक्षण के लिए प्रायः वर्षा ऋतु में ही सक्रिय होता है और खाना पूरी कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेतां है। उसकी ढिलाई के कारण देश के अनेक बड़े हिस्सों में जनता चाह कर भी इस कार्य में हिस्सेदार नहीं बन पाती ।फलस्वरूप बारिश का अधिकांश जल बहकर समुद्र में चला जाता है ।आज आवश्यकता है कि जल संरक्षण हेतु जन आंदोलन का रूप देने के लिए न केवल सरकार सक्रिय हो बल्कि राज्य सरकारों के साथ उनकी विभिन्न एजेंसियों को भी सक्रिय करें, जिससे न केवल बारिश के जल को तो संरक्षित किया ही जा सके अपितु पानी की बर्बादी को भी रोका जा सके ,क्योंकि एक और जहां जल संकट गंभीर रूप लेता जा रहा है वहीं दूसरी ओर अनेक कार्यों में जल का दुरुपयोग भी किया जा रहा है। गाड़ियों की साफ सफाई ,विभिन्न प्रकार की फैक्ट्रियों में भूगर्भ के जल का अंधाधुंध दोहन, गन्ना तथा धान जैसी फसलों के लिए भूगर्भ के जल का अत्यधिक प्रयोग, स्वच्छता अभियान के अंतर्गत बने शौचालयों की व्यवस्था हेतु जल का प्रयोग अनेक ऐसे कार्य हैं जिनमेंआवश्यकता से अधिक पानी बहाया जा रहा है। साथ ही जल स्रोतों की  भी उचित देखभाल नहीं की जा रही है,उन्हें प्रदूषित होने से नहीं बचाया जा रहा है । पहले शहर में तालाब ,कुंआ व झील आदि अनेक प्रकार के जल स्रोत हुआ करते थे जिनमें वर्षा का जल एकत्रित होता था लेकिन अब शहरों से तालाब और अन्य जल स्रोतों का अस्तित्व ही समाप्त हो चुका है ।फलस्वरूप वर्षा का जल संरक्षित न होकर बह  जाता है। शहरीकरण में जल के निकास हेतु नालियां तो बनायी गयी हैं, किन्तु उनसे जल संरक्षित न होकर बह जाता है, खुले क्षेत्रों में पहले पार्कों में पानी एकत्र होता था तथा रिस रिस कर भूमि के अंदर जाता था किंतु अब पार्क भी सीमेंटेड हो गए हैं फलस्वरूप पार्कों के द्वारा भी बहुत कम पानी ही रिसरिस कर भूमि के अंदर जा पाताहै। वर्षा से जो पानी आ रहा है उसे संरक्षित किए जाने की अत्यंत आवश्यकता है। शहरों के विकास के कारण यह समस्या निरंतर बढ़ रही है। सरकार को चाहिए कि वह हर भवन में वाटर हार्वेस्टिंग किए जाने को अनिवार्य रूप से प्रभावी बनावे। व्यवहार में देखा जा रहा है कि हमारे शहरों में 10% लोग भी वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम का निर्माण कर वर्षा के जल को संरक्षित करने में अपना योगदान नहीं दे रहे हैं । नए बनने  वाले भवनों में वाटर हार्वेस्टिंग की व्यवस्था किया जाना अनिवार्य बना देना चाहिए, जिससे वर्षा का पर्याप्त जल भूगर्भ में जाकर भूगर्भ के जलस्तर को बढ़ा सके अन्यथा निरंतर असीमित मात्रा में किए जा रहे दोहन से भूगर्भ का जलस्तर निरंतर गिरकर एक दिन समाप्त प्राय हो जाएगा और हमारे समक्ष पानी की समस्या विकराल रूप धारण कर उपस्थित होगी जिसका कोई निदान ढूंढे नहीं मिलेगा।आज आवश्यकता है कि प्रत्येक सरकारी विभाग उन्हें दिए गए दायित्व का पूर्णतया निर्वहन करते हुए जल स्रोतों को प्रदूषण से पूर्णरूपेण बचाए किंतु व्यवहार में उनमे इस संदर्भ में सक्रियता नहीं देखी जाती वरन् उनके संरक्षण में अनेक औद्योगिक इकाइयों द्वारा जल संरक्षण के नियम कानून को ठेंगा दिखाते हुए अपने अपशिष्ट जल एवं कचरे से जल स्रोतों को ,अनेक पावन नदियों को निरंतर प्रदूषित किया जा रहा है। यद्यपि सरकार ने राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना के अंतर्गत 16 राज्यों की 34 नदियों को प्रदूषण मुक्त करने तथा उनके जल को पीने योग्य बनाने के लिए5800  करोड रुपए की धनराशि अपने बजट में आवंटित की है, जिसका एकमात्र उद्देश्य गंगा नदी के साथ अन्य नदियों को भी पूर्णरूपेण प्रदूषण मुक्त करना है किंतु सरकारी गति से यह नहीं लगता कि यह कार्य सरकारी देखरेख में समय अंतर्गत संपन्न हो सकेग । केंद्र  सरकार ने तो इस संबंध में अपने हिस्से के₹2500 करोड़ विभिन्न राज्यों को निर्गत भी कर दिए हैं किंतु राज्य सरकारों की सरकारी गति से यह नहीं लगता कि नदियों की साफ सफाई का कार्य गति पकड़ सकेगा, क्योंकि किसी भी राज्य सरकार द्वारा अभी तक इस दिशा में कोई ठोस प्रयास नहीं किया जा रहा है। साथ ही नदियों को संरक्षित ,साफ करने के विभिन्न अभियानों का भी अभी तक का अनुभव कोई बहुत अच्छा नहीं रहा है। इस संदर्भ में राज्यों की उदासीनता का मुख्य कारण यह रहा है कि उनके द्वारा जिन भी सरकारी विभागों को नदियों की साफ सफाई का दायित्व सौंपा जाता रहा है उन विभागों को इस कार्य का कोई अनुभव नहीं रहा है और ना ही उन विभागों को नदियों के प्रदूषण मुक्त बनाए जाने हेतु पूर्णरूपेण उत्तरदायित्व ही सौंपा गया, सरकारी विभाग इस कार्य में पूर्ण मनोयोग से न लगकर उसकी खानापूर्ति तक की सीमित रहते हैं।सरकारी विभागों के साथ ही साथ उक्त कार्य हेतु सामान्य जनमानस को भी जोड़े जाने की आवश्यकता है क्योंकि जब तक आम नागरिक नदियों जल स्रोतों को प्रदूषण मुक्त किए जाने की दिशा में जागरूक नहीं होगा ,इस कार्य को पूर्णता प्रदान करने की संभावना नहीं बनती। निसंदेह प्राचीन काल में हमारी संस्कृति में आम जनमानस की सहभागिता नदियों को प्रदूषण मुक्त बनाए रखने हेतु बनी हुई थी ।हमारी संस्कृति में नदियों को माता के रूप में स्वीकार कर उन्हें जीवित मानते हुए उनमें किसी प्रकार के अपशिष्ट को न छोड़ कर उन्हें सदा ही  शुद्ध एवं पवित्र बनाए रखने की दिशा में जागरूक रहकर कार्य किया जाता था। फलस्वरूप हमारी नदियां अभी कुछ वर्ष पूर्व तक पूर्णरूपेण शुद्ध जल से ओतप्रोत थी। फलस्वरूप नदियों के जल के साथ ही साथ अन्य समस्त जल स्रोतों का प्रयोग पीने के पानी के रूप में भी किया जाता था किंतु अब स्थिति पूर्णरूपेण बदल चुकी है। बीते कुछ दशकों में नदियों तथा अन्य जल स्रोतों की अत्यधिक दुर्दशा हुई है तथा समस्त जल स्रोत अत्यधिक प्रदूषित हुए हैं, उनके इस प्रदूषण के लिए औद्योगीकरण और शहरीकरण के साथ सरकारी तंत्र की सुस्ती भी उत्तरदायी  है। ग्रामीण और शहरी इलाकों में जिस सरकारी तंत्र का यह दायित्व था कि नदियां अतिक्रमण और प्रदूषण से मुक्त रहें, उसने अपने दायित्वों का निर्वहनन भली-भांति नहीं किया। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के साथ साथ राज्यों के ऐसे बोर्ड भी अपने दायित्वों का निर्वहन ईमानदारी के साथ न कर मात्र औपचारिकता निर्वाह तक ही सीमित रहे फलस्वरूप उनके द्वारा जल स्रोतों के बढ़ रहे प्रदूषण को अनदेखा करने के कारण वह निरंतर अत्यधिक प्रदूषित होते रहे। फलस्वरूप आज उन का जल पीने के योग्य तो है ही नहीं, स्नान करने में भी अनेकानेक रोग हो जाने का खतरा होने के कारण कोई भी व्यक्ति उसका प्रयोग नहीं करना चाह रहा ।यहां तक कि किसान ऐसे जल स्रोतों  से अपने जानवरों की रक्षा हेतु उन्हें दूर रखने का प्रयास करता है। इस दिशा में सरकारी तंत्र द्वारा किया गया कार्य अभी तक किसी प्रकार की आशा एवं उम्मीद प्रदान नहीं करता क्योंकि जल स्रोतों के प्रदूषण की रोकथाम के लिए बनाई गई विभिन्न सरकारी एजेंसियां अपने हिस्से का कोई कार्य ईमानदारी से नहीं कर रही है ।फलस्वरूप नदियों के किनारे बसे शहरों में स्थापित सीवेज शोधन संयंत्र आधी अधूरी क्षमता से ही काम कर रहे हैं। गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त किए जाने का कार्य भी अत्यंत मंथर गति से चल रहा है उसे 2020 तक प्रदूषण मुक्त किए जाने की बात कही गई थी जो अब पढ़ कर 2022 तक में संपन्न किए जाने की बात की जा रही है।कार्य की गति को देखते हुए यह नहीं लगता कि 2022 तक यह कार्य संपन्न हो जाएगा और हमारी गंगा मां पूर्णरूपेण शुद्ध एवं पवित्र होकर पूर्व की भांति पुनः प्राप्त होगी। आज आवश्यकता है सरकारी कार्यों में उत्तरदायित्व निर्धारण की, जिसके द्वारा समय से कार्य संपन्न करने का दायित्व सौंप कर संबंधित एजेंसियों से समय से ही कार्य संपन्न कराया जाए ,तभी जल स्त्रोत एवं नदियां प्रदूषण मुक्त हो सकते हैं अन्यथा सरकारी धन की बंदरबांट में लगे हुए विभिन्न प्रकार की एजेंसियां एवं तत्व निरंतर कार्य को लंबा घसीटते हुए उसके इस बजट को भी निरंतर  बढ़ाने की मांग कर सरकार पर आर्थिक बोझ बढ़ाने के साथ ही साथ अपने उत्तरदायित्व विहीन  कार्य से देश की विकास की गति को भी बाधित करते रहेंगे।  


 उल्लेखनीय है कि इसराइल में वर्ष भर में औसतन10 सेंटीमीटर वर्षा होती है ,जिसके बलबूते पर वह पर्याप्त फसल उत्पन्न कर अपनी खाद्यान्न संबंधी आवश्यकताओं के साथ-साथ अन्य समस्त आवश्यकताओं हेतु जल कीआपूर्ति कर  लेता है, किंतु हमारे देश में वर्षा के जल की उचित संरक्षण व्यवस्था न होने के कारण 50 सेंटीमीटर औसत वार्षिक वर्षा होने के बाद भी देश के अनेक  राज्यों को अनेक माह पीने के पानी तक की समस्या का सामना करना पड़ता है। वर्षा जल का संरक्षण देश की पारंपरिक योजनाओं से  संभव है जिनका आधुनिक संसाधनों के साथ उपयोग कर वर्षा जल को संरक्षित किया जा सकता है। उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के जखनी नामक ग्राम में खेतों की मेड बंदी कर उन में वृक्षारोपण करते हुए जहां एक और वर्षा के जल को खेतों में रोकने में सफलता प्राप्त की गई वहीं दूसरी ओर भूगर्भ जल स्तर को बढ़ाकर जलवायु एवं वातावरण में आशातीत परिवर्तन कर दिया गया है। बुंदेलखंड का बांदा जिला जहां गर्मी के दिनों में आग उगलता है तथा आसपास का समस्त क्षेत्र पानी के लिए संघर्ष करता रहता है वही जखनी तथा आस-पास के गांवों के निवासियों द्वारा पारंपरिक  प्रक्रिया अपनाए जाने से भूगर्भ के जल में अत्यधिक वृद्धि हुई है, जिससे वहां के नल तथा नलकूपों एवं कुओं तालाबों आदि में वर्ष पर्यंत निरंतर  जल बना रहता है। पहले जहां गर्मी में प्रायः सभी जल स्रोत सूख जाते थे,और अब वर्ष पर्यंत समस्त जल स्रोतों में हर समय पानी बना रहता है तथा कुओं से अधिकतम 5 मीटर रस्सी के सहयोग से पानी निकाल लिया जाता है तथा पानी की अत्यधिक उपलब्धता के कारण वातावरण के  चीन नम एवं शीतल बने रहने के कारण किसान वर्ष में तीन फसल ले रहे हैं जबकि पूर्व में एक फसल पैदा कर पाना भी मुश्किल हो जाता था। वर्षा के जल को मेड़बंदी एवं वृक्षारोपण कर तथा कुओं तालाबों बावड़ियों एवं पानी के बहाव के रास्ते में छोटे-छोटे चेक पोस्टों का निर्माण कर बहकर व्यर्थ चले जाने वाले पानी को स्थान स्थान पर  रोककर उसका  वर्ष पर्यंत उपयोग किया जा सकता है, तथा गर्म हो रहे वातावरण को नम एवं शीतल बनाए रखा जा सकता है। वर्षा तो हर वर्ष होती है किंतु हम वर्षा के जल को संरक्षित करने में चूक जाते हैं। आवश्यकता है वर्षा के जल को पूर्णरूपेण संरक्षित कर भूगर्भ के जल को संवर्धित करते हुए वातावरण पर नियंत्रण स्थापित कर अनपेक्षित जलवायु परिवर्तन पर रोक लगा कर प्रकृति के स्वरूप को सहज एवं सरल बनाने की, किंतु यदि हम वर्षा जल को संरक्षित न कर सके तो जलवायु में हो रहा निरंतर परिवर्तन तथा तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि मानव जीवन ही नहीं प्राणी मात्र के जीवन के समक्ष प्रश्न चिन्ह के रूप में उपस्थित होगा जिसका समाधान ढूंढना असंभव होगा।


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