*बेटी प्रेम में डूब गई शरद पवार की राजनीतिक हैसियत*

 राष्ट्र-चिंतन 


 *इसी तरह दफन होंगी वंशवादी पार्टियां* 

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 *आचार्य विष्णु हरि सरस्वती* 

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शरद पवार को उनकी पार्टी के लोगों ने ही उन्हें न केवल पराजित कर दिया बल्कि लज्जित भी कर दिया, उन्हें इस लायक भी नहीं छोड़ा कि वे भारतीय राजनीति में अपने आप को चाणक्य की स्थिति में रहें और नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, राहुल गांधी, अखिलेश यादव के सामने तन कर खड़े हों सके। कभी बाल ठाकरे के सामने भी तन कर रहने वाले और कभी झुकने वाले नहीं शरद पवार को उनके पाले-पोसे लोगों ने ही उन्हें झुकने के लिए बाध्य कर दिया। महाराष्ट के अंदर भी उन्हें अपमानजनक स्थिति का सामना करना पड सकता है, कांग्रेस और शिवसेना के सामने उन्हें दोयम दर्जे के दंश को भुगतना पड़ सकता है। चुनावी राजनीतिक सौदेबाजी में कांग्रेस और शिव सेना अब उनके सामने विजयी की मुद्रा में होंगीं।

         राजनीति में राजनीतिज्ञ को उतनी ही इज्जत मिलती है और वर्चस्व होता है जिनमें जितनी शक्ति होती है। अघोषित तौर पर शरद पवार भी अपने आप को अगले प्रधानमंत्री के तौर पर देख रहे थे। उन्हें लग रहा था कि सबसे वरिष्ठ और उम्र दराज होने के कारण सभी लोग उन्हें प्रधानमंत्री के उम्मीदवार मान सकते हैं। इसी लिए वे नरेन्द्र मोदी के खिलाफ नीतीश कुमार के अभियान को गति भी दे रहे थे और मोदी के खिलाफ गठबंधन की धार को तेज करने में लगे थे। लेकिन अब प्रश्न यह उठेगा कि जो व्यक्ति अपनी पार्टी नहीं संभाल पाये, जिनकी पार्टी के लोग ही उन्हें छोड़ दिया बल्कि विश्वासघात कर दिया तथा उस पार्टी की चरणवंदना करने चले गये जिस पार्टी को समाप्त करने और उस पार्टी की सांप्रदायिकता को समाप्त करने की कसमें खाते थे। अब शरद पवार कुछ भी बोल सकते हैं, अपने पक्ष में कोई भी तर्क दे सकते हैं, अपनी वंशवादी राजनीति के बारे में जनता को हथकंडा भी बना सकते हैं, अपनी बेटी के पक्ष में जोरदार समर्थन कर सकते हैं पर सच्चाई को कैसे ढक सकते हैं? सच्चाई यही है कि शरद पवार अब महाराष्ट की राजनीति में भी सिक्के उलटने-पलटने वाली शक्ति नहीं रख सकते हैं। जनता उनके साथ है कि उनकी उक्ति मीडिया में बहुत चर्चित हुई है। लेकिन अभी यह कैसे तय हो सकता है कि जनता उनके साथ है? जनता 2024 में ही बता सकती है कि वह किसके साथ है और किसके साथ नही है।

              सिर्फ अपने भतीजे के विश्वासघात का ही शरद पवार शिकार नहीं हुए हैं, बल्कि इसकी सूची बहुत ही लंबी-चौडी भी है। अजित पवार तो पहले भी भाजपा में जाने और शपथ ग्रहण करने का करिश्मा कर चुके थे। पर उस समय आशातीत समर्थन नहीं होने का नुकसान उन्हें उठाना पडा था। कहने का अर्थ यह है कि अजित पवार सिर्फ अवसर के तलाश में बैठे थे। अवसर मिला और भाजपा की चरणवंदना में अपने आप को उपस्थित कर दिया। लेकिन इस बार का आघात बहुत ही कष्टकारक है। इसलिए कि सिर्फ अजित पवार ही साथ छोड़ते तो फिर कोई बात नहीं होती, नुकसान भी कुछ ज्यादा नहीं होता, बात आयी-गयी हो जाती, राजनीति उथल-पुथल भी नहीं होती और राजनीति में शरद पवार की शक्ति जस की तस बनी रह जाती। लेकिन एक पर एक ऐसे ऐसे दिग्गजों ने साथ छोड़ा जो शरद पचार के आंख-कान और नाक हुआ करते थे, जिन पर उन्हें पूर्ण विश्वास होता था, जिन्हें उन्होंने राजनीति में खड़ा कर सत्ता तक पहुंचाया था। छगन भुजबल का नाम यहां लिया जा सकता है। छगन भुजबल पिछडी जाति के मजबूत नेता है, ये कभी बाल ठाकरे के अति प्रिय थे, इन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं मिलने के कारण, भुजबल शरद पवार के साथ मिल गये थे। पिछडों को शरद पवार के साथ लाने में भुजबल की बहुत बडी भूमिका थी। आज भुजबल शरद पवार को छोड़कर भाजपा सरकार के मंत्री बन चुके हैं। सबसे बड़ा नाम तो प्रफुल्ल पटेल का है। हाल ही में प्रफुल्ल पटेल को इन्होंने अपनी पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया था। प्रफुल्ल पटेल की स्थिति एनसीपी में दूसरे नंबर की थी। सुप्रीया सुले के बाद प्रफुल्ल पटेल ही थे। कहा तो यहां तक जा रहा था कि प्रफुल्ल पटेल ही अब एनसीपी के भविष्य थे। प्रफुल्ल पटेल एक व्यवसायी है। शरद पवार ने प्रफुल्ल पटेल को व्यवसायी गुण होने के कारण ही अपनी पार्टी की राजनीति में महत्वपूर्ण पदों पर बैठाये थे, संासद बनाये थे। लेकिन प्रफुल्ल पटेल भी अब शरद पवार के साथ नहीं हैं। प्रफुल्ल पटेल भाजपा के साथ खडे हैं। राजनीतिक हलकों में प्रफुल्ल पटेल का प्रकरण सर्वाधिक चर्चित हैं और प्रफुल्ल पटेल ने पवार का साथ क्यों छोड़ा? इस पर राजनीतिक मंथन के चाकचौबंद निष्कर्ष अभी तक निकले नहीं हैं।

              वंशवाद की राजनीति से उत्पन्न यह राजनीतिक परिस्थिति है क्या? क्या अपनी वंशवादी राजनीति में ही शरद पवार मात खा गये? वंशवाद की राजनीति एक प्रमुख कारण जरूर है पर संपूर्ण कारण नहीं है। वंशवाद राजनीति को हम प्रमुख कारण मान सकते हैं। नेहरू की यह कीड़ा अब राजनीति में सिरमौर स्तर पर खडे राजनीतिज्ञों को जोड़ से काटता है। लालू, मुलायम, दोगोड़ा, डेढगोड़ा जैसे उदाहरण भरे पडे हैं। शरद पवार भी वंशवाद की राजनीति अपनायी। शरद पवार को यह मालूम हो गया था कि उनकी अपनी राजनीति अब बहुत ज्याद चलने वाली नहीं है। आज न कल उन्हें पार्टी की जिम्मेदारी से प्रत्यक्ष तौर पर हटना ही होगा। इसलिए उन्होंने अपनी बेटी सुप्रिया सुले को एनसीपी का अध्यक्ष बना दिया। सुप्रिया सुले सांसद जरूर रही है लेकिन राजनीतिक दक्षता में उसकी कोई खास पहचान नहीं है। राजनीति चचुराई के मामले में वह बीस नहीं बल्कि उन्नीस ही है। वक्ता भी वह सर्वश्रेष्ठ क्वालिटी की नहीं है। जबकि अजित पवार पार्टी के स्वाभाविक दावेदार थे। अजित पवार प्रारंभ से ही शरद पवार के लिए संकट मोचन के रूप में उपस्थित थे। महाराष्ट की राजनीति में अजित पवार की पैठ और प्रबधन भी उल्लेखनीय है। अजित पवार को अगर विश्वास में लिये होते और उन्हें उनका उचित स्थान दिया होता तो फिर ऐसी बगावत या फिर इस प्रकार की विश्वासघाती राजनीति से बचा जा सकता था।

             उम्र से कोई लड़ नहीं सकता है। उम्र हावी होने से चतुराई धरी की धरी रह जाती है। शरद पवार के उपर उम्र तेजी के साथ हावी हो रही है। उनका स्वास्थ्य भी तेजी के साथ गिर रहा है। बढती उम्र और खराब स्वास्थ्य के कारण अब वे राजनीतिक संघर्षी बने नहीं रह सकते हैं। उत्पन्न वर्तमान परिस्थितियो का वे सामना भी नहीं कर सकते हैं। शरद पवार सिर्फ और सिर्फ एक ही कदम उठा सकते हैं वह कदम है बागी और विश्वासघाती लोगों को पार्टी से निकालने की कार्रवाई। पर इस कार्रवाई का भी कोई असर नहीं होने वाला है।

          एनसीपी अब किसकी जागिर बनेगी? इस पर भी शरद पवार तय नहीं कर सकते हैं। एनसीपी का वजूद भी खतरे में है। एनसीपी का चुनाव चिन्ह भी खतरे में है। अजित पवार की घोषणा के अर्थ भी समझा जाना चाहिए। अजित पवार ने कहा है कि वे अगला चुनाव एनसीपी के नाम और चिन्ह पर लडेंगे। यानी की अब एनसीपी पर कब्जा करने की लड़ाई शुरू होने वाली है। लड़ाई चुनाव आयोग में जायेगी। चुनाव आयोग फैसला करेगी कि एनसीपी किसकी पार्टी बनी रहेगी और किसकी नहीं बनी रहेगी, एनसीपी का चुनाव जिन्ह कौन धारण करेगा। अगर यह प्रसंग चुनाव आयोग में गया तो निश्चित मानिये कि एनसीपी को फ्रीज कर दिया जायेगा और दोनों पक्षों को अलग-अलग चुनाव चिन्ह धारण करने का फरमान भी सुनाया जा सकता है। चुनाव आयोग ने इस तरह के फैसले कई बार किये हैं। उद्धव ठाकरे भी चुनाव आयोग के फैसले से इसी तरह शिकार बने थे।

          महाराष्ट की राजनीति में ऐसी घटनाएं समर्थन के लायक नहीं हैं, घृणित है और अस्वीकार्य है, जनादेश की कसौटी पर विश्वासघात जैसी हैं। पर इसके लिए सिर्फ भाजपा और विश्वासघाती ही जिम्मेदार नहीं हैं। शरद पवार भी कम जिम्मेदार नहीं है। शरद पवार की वंशवादी राजनीति और मानसिकता ने भी उन्हें आज हाशिये पर खड़ी कर दी है।



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