भारत में बढ़ते जलवायु परिवर्तन के विकराल प्रभाव वर्तमान में भारत के समक्ष एक सबसे बड़ी समस्या - प्रो डॉ आसमी रज़ा

New Delhi


विश्व में बड़ी तेजी हो रहे जलवायु परिवर्तन सबसे अधिक प्रभावित होने वाले देशों की सूची में भारत का नाम सबसे ऊपर है। यह बात दिल्ली विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्रीय प्रो0 डॉ0 आसमी रज़ा ने मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) के शोधकर्ताओं द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट का हवाला देते हुए यहां तक चेतावनी दी है कि यदि जलवायु परिवर्तन अपनी वर्तमान गति से इसी प्रकार चलता रहा तो सदी के अंत तक दक्षिण एशिया के बड़े हिस्से में भी बढ़ते तापमान और वर्षा के पैटर्न में बदलाव से भारत की जीडीपी में भारी गिरावट आ सकती है। उन्होंने विश्व बैंक की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा, 2050 तक बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन भारत के लिए एक बड़ा खतरा हो सकते हैं। डॉ0 रज़ा ने कहा की " यह बात भली भाँती भारत में रहने वाले सभी जानते हैं की भारत एक कृषि प्रधान देश है। देश की दो-तिहाई आबादी कृषि पर निर्भर है और खाद्यान्न उपलब्ध कराने के कारण इस पर नकारात्मक प्रभाव समूची मानव जाति को प्रभावित करता है।


भारत की अधिकांश कृषि मानसून पर निर्भर है जिसके कारण मानसून देश का असली वित्त संचालक है यह कहना बेहतर होगा। मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) के एक रिपोर्ट के हवाले से कहा की विशेष कर भारत में जलवायु परिवर्तन के बढ़ते तापमान से पिघलते ग्लेशियर के कारण कुछ नदियों का जल स्तर बढ़ जाता है। जैसे कोसी , गंडक, गंगा और सिंधु नदी के तटवर्तिय क्षेत्र में लग भग डेढ़ अरब से अधिक लोगों के अबादि वाले कृषक क्षेत्र में और देश की लगभग 50 प्रतिशत ग्रामीण पठारी क्षेत्र वाली आबादी के जीवन स्तर को प्रभावित करता है, जहां इंसानो का रह्ना दुभर हो जाता है। अर्थशास्त्रीय डॉ रज़ा का मानना हैं की दुनिया में पहले से ही भारत को अधिक आपदाग्रस्त और बेहद संवेदनशील प्रभावित देशों में से एक माना जाता है। जहां हर वर्ष बाढ़ से क्षति होने वाले पूर्वोत्तर क्षेत्रों में उत्तराखंड, उत्तर बिहार, आसाम, बंगाल जैसे राज्यों में कृषि पूरी तरह से नष्ट हो जाता है वहीं भारत का दक्षिणपश्चमी एवं दक्ष्णी प्रांत में गर्मी के कारण फसलें नष्ट हो जाती है। उन्हों ने कहा की ' हर वर्ष भारत में कहीं बाढ़ तो सुखाड़ के कारण कृषि पर काफी बुरा प्रभाव पड़ता है जिसका दुष्य प्रभाव भारतीय बाज़ारों पर भी स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।


उन्होंने ने कहा की वैश्विक स्तर पर भारतीय बाज़ारों में निवेशको की भारी कमी हैं जबकि चीन , जापान और यूरोप के कनाडा , अमेरिका, जैसे देशों के बाज़ारों में निवेशकों की काफी बड़ी संख्यां में देखने को मिलती है। उन्होंने कहा की विश्व में सभी देशों की सरकार के पास नीतियां तो हैं लेकिन व्यवस्था की कमी है, उसे लागू करने की आवश्यकता है। जिसका ना तो सही समय पर उपयोग होता है और न तो उसे सही समय पर लागू ही किया जाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार के पास नीतियां हैं लेकिन उसमे बहुत अधिक जागरूकता पैदा करने की आवश्यकता है। जो नीति निर्माताओं को बहुस्तरीय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। शिक्षा, गैर-कृषि नौकरियों में सुधार तथा आर्थिक नीतिओं में बदलाव की आवश्यकता है। पर्यावरणविदों एवं बाज़ार अनुभवों का मानना है की इस दुष्य प्रभाव को रोकने के लिये अक्षय ऊर्जा में बड़े पैमाने पर यदि निवेश करने जैसी रणनीतियों पर कार्य किया जाय तो समस्या को दूर किया जा सकता है। भारत में बढ़ते जलवायु परिवर्तन के विकराल प्रभाव वर्तमान में भारत के समक्ष एक सबसे बड़ी समस्या है। यह समस्या मानवीय क्रियाकलापों की देन है बेशक आज विकास की धारा को मोड़ा नहीं जा सकता है, किन्तु इसे मानवीय हित में इतना नियंत्रित तो अवश्य किया जा सकता है। जिससे भारत वर्ष की विकास की धारा पर मंडरा रहे इस गम्भीर संकट को दूर किया जा सके। ‘‘जियो और जीने दो’’ के सिद्धान्त का पालन करते हुए यहाँ के पर्यावरण सुरक्षा में योगदान देना चाहिये। पर्यावरण सम्बन्धी बदलावों, सूखा, बाढ़, समुद्री तुफान के बढ़ते प्रकोप के बावजूद ग्लोबल वार्मिंग का मुद्दा अभी भी आम लोगों के बीच अपनी जगह नही बना पाया है। अतः अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर पर्यावरण चिन्तन के लिये जो भी बैठकें हुयी है, उनमें ग्लोबल वार्मिंग के परिणामों की भयावहता पर ही अधिक चर्चा हुई है। जबकि सुधार के प्रयास कम ही किये गये हैं। अतः आवश्यकता है कि व्यावहारिक हल खोजने के अलावा उन पर अमल भी किया जाये।


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