बांधों न बांध हर ठांव बंधु

प्रयागराज
जल प्रबंधन एवं बाढ़ की समस्या के समाधान के लिए राष्ट्रीय स्तर पर बांधों के निर्माण को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है और यह माना जा रहा है कि वर्षा के दिनों में बाढ़ के समय अपने आगोश में अपार जल राशि समेटे हुई  नदियों को बांध बनाकर उन्हें सीमित करते हुए जहां एक और बाढ़ की समस्या का समाधान प्राप्त किया जा सकता है वहीं दूसरी ओर व्यवस्थित जल प्रबंधन भी सुचारू रूप से संभव हो सकता है, किंतु यह मानना बहुत युक्ति युक्त प्रतीत नहीं होता है ।प्रारंभ में बड़ी-बड़ी नदियों पर बड़े बड़े बांथ बनाकर जल की उपलब्धता को सुनिश्चित करते हुए खेतों पर पानी पहुंचा कर हरित क्रांति के सपने को साकार किया गया पर अब निरंतर पानी की मांग को देखते हुए बड़ी नदियों के साथ ही साथ छोटे-छोटे नदी नालों को भी बांधकर एक दायरे में सीमित करने का कार्य किया जा रहा है तथा उससे ग्रामीण स्तर पर तथाकथित छोटे छोटे बांधों का निर्माण कर सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है किंतु यह बांध जहां एक और अपेक्षित क्षेत्रफल को पूर्णरूपेण सिंचाई की सुविधा उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं वहीं दूसरी ओर जनसंख्या एवं पर्यावरण पारिस्थितिकी के साथ ही साथ अनेकानेक समस्याओं को जन्म देकर मानव जीवन के समक्ष चुनौती बनकर खड़े हो रहे हैं।                             
      बांधों के निर्माण की घोषणा के साथ ही जनसामान्य के समक्ष अपने अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाता है। बांध  छोटा हो या बड़ा ,हर बांध अपने क्षेत्र में रह रहे निवासियों को वहां से पलायन करने के लिए मजबूर कर देता है, जिससे जमीन से उखड़े हुए लोग अपने जीवन को सुव्यवस्थित न कर पाने के कारण, संसाधनों के अभाव में इधर उधर भ्रमण करते हुए जीवन यापन  हेतु पर्याप्त संसाधनों की खोज में प्रायः नारकीय जीवन जीने के लिए विवश हो जाते हैं। एक और उनका आवास एवं जीवन की आधारभूत भूमि बांधों के पेट में समा जाती है वहीं दूसरी ओर सरकारें  दिवा स्वप्न दिखाती हुई उन्हें मात्र लाली पाप ही पकड़ाती हैं, जिसे लेकर वह कहीं के नहीं होते, न तो उन्हें अपनी संपत्ति का पर्याप्त मुआवजा मिलता है ,और न ही अपनी जमीन छोड़ने के बदले कहीं स्थाई निवास बनाने हेतु जीवन यापन के लिए पर्याप्त साधन तथा भूमि। उनके आवास से हटाए जाने के समय तक सरकार तरह तरह की घोषणाएं करते हुए उन्हें उनकी भूमि से तो उखाड़ देती ही है किंतु उनके भावी जीवन और पुनर्वास के लिए कुछ भी नहीं करती। संपत्ति के मुआवजे के नाम पर आधी अधूरी धनराशि देकर वह अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेती है। एक बार अपनी भूमि से उखड़ जाने के बाद विशाल जनसंख्या दर-दर की ठोकरें खाने के लिए विवश हो जाती है और उसको कहीं से कोई सहारा नहीं मिलता। दिया जाने वाला मुआवजा भी ऊंट के मुंह में जीरा की तरह सामने आता है , जिसके बल पर न तो वह अपने भावी जीवन की रूपरेखा तैयार कर सकते हैं और न ही विकास के लिए नए द्वार।
निवास के लिए कोई स्थाई छत बनाना किले बनाने से कम नहीं होता और मजबूर तथा असहाय व्यक्तियों को कहीं से कोई सहयोग भी नहीं मिलता।
‌        बाधों के निर्माण में आधारभूत तत्वों के रूप में जल विद्युत उत्पादन, सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराना तथा बाढ़ पर नियंत्रण प्राप्त करना प्रमुख है। आज देश मे लगभग 5200 बड़े और मझोले बांध है जिनके द्वारा देश में खेतों खेतों की सिंचाई तथा जल विद्युत उत्पादन का कार्य किया जा रहा है। जहां तक खेतों की सिंचाई का प्रश्न है अब तक बनाए गए बांधों में से शायद ही कोई ऐसा  बांध हो जो अपने लिए निर्धारित कृषि क्षेत्र की सिंचाई करने में सफल हुआ हो। नर्मदा नदी में बना सरदार सरोवर देश के सबसे बड़े बांधों में से एक है जिसकी क्षमता करीब 586 करोड़ क्यूबिक फिट है किंतु सरदार सरोवर से गुजरात के सौराष्ट्र में पानी न मिलने के कारण किसान नाराज हैं ।गत कुछ वर्षों में गुजरात सुरेंद्रनगर जिले सहित आसपास के निवासी किसानों पर नर्मदा बांदा से  पानी चोरी करने का आरोप लगाते हुए 50 से अधिक स्थानों पर किसानों पर मामले दर्ज कराए गए हैं जिसे लेकर स्थिति इतनी बिगड़ गई है की गुजरात सरकार को कई स्थानों पर पानी की चोरी रोकने के लिए एसआरपी के जवान तक तैनात करने पड़े हैं। अंतरराष्ट्रीय पानी प्रबंधन संस्थान के निदेशक तुषार साह का कहना है  किसानों पर पानी की चोरी का केस बनाना बेबुनियाद है ।जब किसान के खेत के पास पानी बह रहा हो और उसके खेत सूखे हो तो वह पानी लेगा ही। वस्तुतः सरकार परंपरागत जल संसाधनों को बचाने में नाकाम रही है। इसलिए सौराष्ट्र आज पीने के पानी और सिंचाई के लिए पूरी तरह नर्मदा पर निर्भर है ,लेकिन अब तक सरकार लोगों से कह रही थी कि बांध की ऊंचाई न बढ़ने के कारण उन्हें पानी नहीं मिल रहा। असलियत यह है कि सरकार नहरों का नेटवर्क ही नहीं बिछा पाई  लेकिन अब ऊंचाई बढ़ने के बाद भी अगर पानी नहीं पहुंचा तो यह स्थिति और गंभीर हो सकती है। बांध बंध जाने के बाद भी उनकी नहरों का जाल मानक के अनुसार नहीं फैल पाता।फलस्वरूप उनसे अपेक्षित सिंचाई का कार्य भी संपन्न नहीं हो पाता। एक रिपोर्ट के अनुसार कोई साढ़े चार सौ बांध निर्माणाधीन हैं, लेकिन इन निर्माणाधीन बांधों की वर्तमान स्थिति के बारे में ज्यादा पता नहीं चलता। देशभर के बांधों पर निगरानी का काम केंद्रीय जल आयोग करता है लेकिन  निगरानी का यह काम सिर्फ 107 बांधों तक सीमित है , अन्य बांधों की स्थिति के संदर्भ में केंद्रीय जल आयोग भी मौन है। कोई नियंत्रक संस्था ना होने तथा किए जा रहे कार्य पर किसी प्रकार की निगरानी ना होने के कारण जहां  धन का अत्यधिक  अपव्यय होता है, वहीं दूसरी ओर योजनाओं की समय से पूर्ति ना हो पाने के कारण उनकी लागत भी निरंतर बढ़ती रहती है और बजट की मांग मुंह बाए खड़ी रहती है किंतु कार्य पूर्ण होने का नाम नहीं लेता। 
‌    वस्तुतः विकास के नाम पर बांधों के तटबंध, सड़क, नहर बनाकर और रेल लाइन आदि बिछाकर पानी के बहाव के मार्ग को बाधित कर दिया गया है । विकास की गति में पानी के बहाव को कोई स्थान नहीं दिया गया और न ही उसके विषय में किसी प्रकार का विचार कर उसकी स्थिति को ही समझा गया है। पूरे देश में कहीं भी पानी की निकासी की व्यवस्था के संदर्भ में कोई ध्यान नहीं दिया गयाऔर ना ही उस पर विचार कर कोई कार्यवाही की गई है। देश या राज्य की किसी भी सरकार ने वर्षा जल के नियंत्रण एवं उसकी निकासी की व्यवस्था को लेकर ना तो किसी प्रकार का कोई अध्ययन किया है और ना ही इस संदर्भ में किसी प्रकार की नीति निर्धारित की है, सन 1930 से लेकर अब तक सिंचाई आयोग या बाढ़ आयोग देश व राज्य स्तर पर गठित हुए, लेकिन जल निकासी को वह महत्व कभी नहीं मिला जो उसे मिलना चाहिए ।फलस्वरूप जल निकासी की व्यवस्था न होने के कारण आज वर्षा का जल अनियंत्रित होकर जहां नदियों में भयंकर बाढ़, बांधों में जल की अतिशय वृद्धि कर उनके तटबंधों को तोड़कर आगे बढ़ने का कार्य करता है और हर समय बड़े बांधों के समीपवर्ती क्षेत्रों में जल प्रलय की आशंका को बल देता हुआ वहां के निवासियों के समक्ष हर समय यमराज बन कर खड़ा रहता है। अब तक पूरे विश्व में ऐसे अनेक दृश्य उपस्थित हो चुके हैं जिनमें अनियंत्रित  जल एकत्रित होकर बांधों को तोड़ते हुए  प्रलयंकारी परिणाम दे चुका है।
‌ आज देश में 52 सौ से अधिक बांध है जिनमें से सरकार द्वारा दी गई सूचना के अनुसार 670 बांध ऐसे क्षेत्रों में ही स्थित है जो क्षेत्र भूकंप संभावित जोन की उच्चतम श्रेणी में आते हैं। इन बांधों की सुरक्षा के संदर्भ में क्या किया गया है ।इनके निर्माण का स्तर क्या है तथा भूकंप की स्थिति में उनकी क्या स्थिति होगी ? यह विशाल जल राशि से कैसी स्थिति उत्पन्न करेंगे ,इस संदर्भ में किसी के भी द्वारा ना तो कुछ सोचा गया और ना ही कोई अध्ययन किया गया है ।सन 2011 में जापान में आए भूकंप और सुनामी से फुकुशिमा परमाणु संयंत्र के आसपास हुई तबाही के बाद से सुरक्षा संबंधी सवाल और तेज हो गए हैं। कई विशेषज्ञों का मत है कि भारत के सैकड़ों बांध अब पुराने हो गए हैं और असुरक्षित होते जा रहे हैं। साउथ एशिया नेटवर्क ऑफ डेंस के प्रमुख हिमांशु ठक्कर का कहना है कि बांधों की स्थिति की ओर किसी भी सरकार का ध्यान नहीं गया है वर्तमान समय में 300 से ज्यादा बांध 100 वर्ष से अधिक पुराने हो गए हैं। मोरबी बांध के ढह जाने के बाद भी हम सचेत नहीं हुए ,बांध पर बांध बने जा रहे हैं। बिना यह सोचे कि अगर ऊपर वाला बांध टूट गया तो नीचे किस तरह की प्रलय आ जाएगी।  वर्ष 1979 में गुजरात के भारी बारिश और बाढ़ से प्रभावित होकर मोरबी बांध के टूट जाने से वहां पर प्रलयंकारी दृश्य उपस्थित हुआ था और सरकारी आंकड़ों के अनुसार कम से कम 5000 लोगों की मौत हुई थी जबकि जन सामान्य में कई हजार लोगों के मरने  की आशंका व्यक्त की गई थी। इसके साथ ही भारत नेपाल सीमा पर बने कोसी नदी पर बने बांध को टूटे हुए अभी बहुत दिन नहीं हुए हैं जिससे प्रभावित होकर हजारों लोगों को  बेघर होने के साथ अनेकलोगों को मौत का सामना करना पड़ा था। वर्ष 2017 में राजस्थान के झुंझुनू जिले के मलसीसर गांव में मलसीसर बांध के टूट जाने से अचानक ऐसा ही  दृश्य उपस्थित हुआ था ।उल्लेखनीय है यह मलसीसर बांध 588 करोड रुपए की लागत से वर्ष 2017 के जनवरी माह में बनकर तैयार हुआ था और मात्र 3 माह में 31 मार्च 2017 को ही भरभरा कर टूट गया जिससे चारों ओर हाहाकार मच गया। पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी वर्ष 2005 में बलूचिस्तान प्रांत में जबरदस्त बारिश की वजह से 
‌शाकीडोर बांध टूट गया था जिसके प्रलयंकारी परिणाम देखने को मिले थे।
‌ बांध बनाने के नाम पर नदी के जल  प्रवाह को रोक दिया जाता है जिससे जहां एक ओर वह अपनी  गति से बहती हुई आगे नहीं बढ़ पाती ,वहीं दूसरी ओर उसमें रहने वाले जीव जंतुओं तथा मछलियों के लिए यह बांध अवरोधक रूप में कार्य करते हैं। मछलियां नदी के किनारे किनारे तथा जल के प्रवाह के साथ तैरती रहती हैं , किंतु बांधों के बंध जाने से उस में अपार जल राशि इकट्ठा होने के कारण मछलियां अपनी प्रवृत्ति के अनुरूप न तो उसके किनारे पर पहुंच पाती हैं और न ही उसमें बहाव होने के कारण बहाव के साथ तैरती हैं। ऐसे में बांध के अवरोधक के रूप में कार्य करने से उनके प्रजनन एवं विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है ।यह स्थिति केवल मछलियों के साथ ही नहीं अपितु नदी में रहने वाले सभी जलचर प्राणियों के साथ होती है ।फलस्वरूप उसका असर उस नदी तथा बांध में समग्र रूप से परिलक्षित होता है। बांध के बन जाने पर एक निश्चित क्षेत्र में जल की विशाल राशि एकत्रित होने से बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और समीपवर्ती क्षेत्र में मानव सहित अनेक जीव जंतुओं के आवास नष्ट हो जाते हैं तथा पारिस्थितिक तंत्र पूर्णरूपेण प्रभावित होता है जिससे पौधों वन्य जीव और मनुष्यों सहित अनेकानेक जीव प्रजातियां या तो  नष्ट हो जाती हैं या विस्थापित हो जाती है तथा नदी का प्रवाह बंद हो जाने के कारण एकत्रित जल में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाने के कारण बांध के तल पर एकत्रित सामग्रियों के अपघटन से एक बहुत शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस मीथेन का उत्पादन होता है जो वैश्विक जलवायु परिवर्तन में योगदान करते हुए वायुमंडल में निरंतर उत्सर्जित होकर उसे प्रभावित करती है, जिसका वातावरण में दुष्प्रभाव पड़ता है।
‌बड़े बांधों के साथ ही छोटे-छोटे बांध भी निरंतर बनाए जा रहे हैं जिससे जलवायु पारिस्थितिकी पारिस्थितिकी के समक्ष गंभीर चुनौती उपस्थित हो रही है। यह छोटे-छोटे बांध जहां एक और छोटी नदियों के जल प्रवाह को बाधित कर उन्हें मृत प्राय ही नहीं बना देते अपितु उनके प्रवाह को समाप्त कर उनके जीवन को भी समाप्त कर देते हैं ।सिंचाई के नाम पर ऐसे बांध जितने क्षेत्र को सिंचित कर पाते हैं उससे अधिक क्षेत्र को यह छोटी-छोटी नदियां अपने आप सिंचित करने के साथ अपने बाढ़ के समय छोड़ी गई मिट्टी से उर्वरा शक्ति प्रदान कर कृषि उत्पादन में वृद्धि करते थे किंतु यह छोटे बांधों के बंध जाने से और  छोटी नदियों का जीवन समाप्त हो जाने से उनके द्वारा क्षेत्रीय स्तर पर मछलियों के जीवन से लेकर जीव जंतु पशु पक्षी एवं मानव जीवन भी अनेक प्रकार से प्रभावित होता है तथा प्रकृति को अनपेक्षित हानि का सामना करना पड़ता है।
‌ बांधो की सुरक्षा आज सबसे बड़ा प्रश्न है? जिसका उत्तर कहीं से प्राप्त नहीं हो रहा है। अगस्त2019 में बांधों की सुरक्षा समुचित निगरानी निरीक्षण और उनका संचालन सुनिश्चित करने के लिए बांध सुरक्षा विधेयक पास किया गया है।  विधेयक के उद्देश्यों में कहा गया है कि बांध एक महत्वपूर्ण आधारभूत संरचना है जिसका निर्माण सिंचाई विद्युत उत्पादन बाढ़ नियंत्रण पेयजल और औद्योगिक प्रयोजन के लिहाज से जल के बहुउद्देशीय उपयोगों के लिए बड़े पैमाने पर निवेश किया जाता है कोई असुरक्षित बांध मानव जीवन पारिस्थितिकी एवं सार्वजनिक एवं निजी संपत्तियों के लिए खतरनाक हो सकता है ऐसे में बांध की सुरक्षा एक मुख्य चिंता का विषय है और यह राष्ट्रीय जिम्मेदारी है विधेयक में कहा गया है कि आपदाओं से संबंधित बां से जुड़ी समस्याओं के निवारण और बांध सुरक्षा मानकों को बनाए रखने के लिए संबंधित नीति विकसित करने तथा आवश्यक नियमों की सिफारिश करने के लिए राष्ट्रीय बांध सुरक्षा समिति का गठन प्रस्तावित है जिसके द्वारा बांधों की ऊंचाई सहित अन्य मानक निर्धारित करते हैं बांधों की सुरक्षा हेतु मार्गदर्शक सिद्धांत प्रतिपादित किए जाएंगे।
‌ वस्तुतः बांधों की सुरक्षा एवं उनसे उत्पन्न खतरों एवं उनसे उत्पन्न दुष्प्रभावों को देखते हुए यह कहना है कि बांधों से होने वाले लाभ पर्याप्त प्राप्त कर लिए गए हैं, आज देश में जितने बांध बने हुए हैं उन बांधों से निरंतर लाभ प्राप्त होते रहेंगे, बांधों की सुरक्षा का प्रश्न अकाट्य प्रश्नचिन्ह की तरह सामने खड़ा है जिसका निदान अब तक खोजा नहीं जा सका है फलस्वरूप उनकी स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि बहुत हो गया बहुत बन गए बांध, बंद करो नित्य नए बांधों का बनाना, अब नए बांधों की आवश्यकता नहीं है ।पुराने बांधों को ही सुरक्षित रखकर उनसे आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए उनके अन्य विकल्प तलाशे जाने चाहिए । मानव की तरह हर छोटे छोटे जीव जंतु एवं नदी नालों को अप्रतिहत गति से बहते हुए अपने जीवन ,अपनी गति एवं अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रकृति प्रदत्त अधिकार है, जिसे छीनने का अधिकार किसी के पास नहीं है और यदि उन अधिकारों पर हस्तक्षेप करते हुए उनकी गति बाधित की जाती है तो उसके दुष्परिणाम परिलक्षित होंगे।छोटे-छोटे जल स्रोतों एवं नदी नालों पर बन रहे बांधों से लेकर बड़ी-बड़ी नदियों पर बनने वाले बांधों की स्थितियों और उनके दुष्प्रभाव को देखकर लगता है कि अब नए-नए बांधों की आवश्यकता नहीं है पूर्व निर्मित जो बांध हैं,वह सुरक्षित रहें तथा उन्हीं का सदुपयोग होता रहे, यही पर्याप्त है ।नए बांध बनाकर प्रकृति के कार्यों में अत्यधिक हस्तक्षेप करना एक प्रकार से उसे चुनौती देना है और प्रकृति चुनौती स्वीकार कर उसका परिणाम देने में कभी पीछे नहीं रहती और यह परिणाम प्रायःभयंकर होते हैं ।आज आवश्यकता प्रकृति को चुनौती देने के स्थान पर प्रकृति का सहयोग प्राप्त कर उसके संरक्षण संवर्धन एवं प्रबंधन केअनुरूप आचरण कर स्वतंत्र रूप से कार्य करने की है, जिससे न तो  बाढ़ और भूकंप की  भयंकरता का सामना करना पड़े और न ही प्राणियों के समक्ष पर्यावरण पारिस्थितिकी और जीवन यापन के आवश्यक तत्वों के अभाव का प्रश्न उपस्थित हो । मनुष्य के साथ-साथ समस्त जीव-जंतुओं या यूं कहें प्राणी मात्र के जीवन के समक्ष चुनौतियां कम से कम है और ऐसी स्थिति बने कि जीवन सहज सरल रूप से संचालित होता रहे। ऐसी स्थिति में बांधों की स्थिति एवं उनके दुष्परिणाम को देखते हुए महाप्राण निराला की पंक्ति में कुछ परिवर्तन कर बस यही कहना है -बांधों न बांध हर ठांव बंधु, रोता है हर गांव बंधु।


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