जल संरक्षण और महात्मा गांधी



 प्रयागराज 


महात्मा गांधी का व्यक्तित्व अप्रतिम था , उन्होंने जहां एक और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में देश का नेतृत्व किया था और देश को आजादी दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी वहीं दूसरी ओर वह देश में व्याप्त विरोधियों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए सामाजिक सुधार एवं राष्ट्रहित के अन्य कार्यों को भी अत्यंत महत्त्व देते हुए सहज रूप में उनके संदर्भ में अपने न केवल विचार व्यक्त करते थे अपितु अपने कार्य एवं आचरण से भी उसे अभिव्यक्त करते थे जिसके कारण न केवल देश के अंदर अपितु समस्त विश्व में व्याप्त अनेक अनेक समस्याओं को लेकर अनेक राष्ट्रों ने उनके सिद्धांतों का अनुकरण कर अपनी राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान खोजने का प्रयास किया है। महात्मा गांधी के जीवन काल में शुद्ध पेयजल की समस्या अत्यंत गंभीर समस्या थी। देशवासियों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं था जिसे देखते हुए उन्होंने आजादी को शुद्ध हवा शुद्ध पेयजल तथा भोजन की उपलब्धता के रूप में परिभाषित किया था। गुजरात के काठियावाड़ में निरंतर पढ़ रहे अकाल एवं उसके दुष्प्रभाव से वह अत्यंत व्यथित थे, जिसे लेकर उनका मानना था कि आकाश से मुक्ति स्वयं प्राप्त नहीं होगी इसके लिए जनसामान्य को रजत संघों के साथ मिलकर कार्य करना होगा ।महात्मा गांधी ने काठियावाड़ की रियासतों से अनुरोध किया था कि वह सब संघ बनाकर छोटे-छोटे जोरापोखर तालाब आदि बनाकर वर्षा के जल का संचयन करें तथा अधिकाधिक मात्रा में वृक्षारोपण करें। किसी भी रूप में वनों की कटाई न होने दें, वनों की कटाई का पुरजोर विरोध करें। 
वर्ष 1938 में प्रार्थना सभा में वर्षा जल पर संरक्षण को लेकर बोलते हुए उन्होंने कहा था कि वर्षा जल प्रकृति की अमूल्य निधि है जिसे हमें बेकार नहीं जाने देना चाहिए उसका संरक्षण कर भूगर्भ के दल का समर्थन करते हुए उसका उपयोग पीने के पानी एवं फसलों की सिंचाई  के लिए प्रयोग में लाना चाहिए। वर्षा का जल नदी नालों के माध्यम से वह कर व्यर्थ में चला जाता है हमें उसका संरक्षण पर अपने जल स्रोतों का संवर्धन करना चाहिए। इसके लिए वर्षा जल के बहाव के मार्ग में जोहड़, पोखर एवं तालाब आदि का निर्माण करना चाहिए तथा किसी न किसी प्रकार से उसे संरक्षित करना चाहिए क्योंकि आज वह बहकर गर्त में चला जाता है और उसका उपयोग नहीं हो पाता ,जब कि उसे संरक्षित कर उसका उपयोग पीने के पानी के साथ ही साथ फसलों की सिंचाई में भी सहज रूप में किया जा सकता है। फसलों की सिंचाई के लिए भूगर्भ के जल का दोहन नहीं करना चाहिए भूगर्भ काजल राष्ट्र की संचित निधि है उसका उपयोग आपातकाल में होना चाहिए फसलों की सिंचाई के लिए वर्षा के जल को संरक्षित कर भरपूर मात्रा में उसी का उपयोग करना चाहिए आवश्यकता पड़ने पर जल के अन्य स्रोतों का भी उपयोग किया जा सकता है किंतु भूगर्भ के जल का दोहन प्रकृति के साथ छेड़छाड़ है जो किसी भी स्थिति में  स्वीकरणीय नहीं है। विकास की अंधी दौड़ में भाग रहा मानव समाज प्रकृति से छेड़छाड़ कर उसके जल का अंधाधुंध दोहन कर आज जल समस्या को न्योता दे रहा है। प्रकृति के संसाधनों का असीमित दोहन कर मानव समाज अपने आप में गर्व तो महसूस कर रहा है किंतु 1 दिन ऐसा आएगा कि वह प्रकृति की अमूल्य धरोहर आंखों से पूर्णरूपेण वंचित हो जाएगा और भविष्य में उनके लिए तरसेगा। प्रकृति स्वयं का संरक्षण करने के लिए स्वयं समर्थ है ।मानव के अतिरेक से व्यथित होकर वह समय-समय पर रौद्र रूप धारण कर अपना विरोध क्रोध अभिव्यक्त करती है, जिसका खामियाजा समय-समय पर मानव समाज एवम् तथाकथित विकासशील समाज को भुगतना पड़ता है।
इलाहाबाद में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन के दौरान एक सुबह नेहरू जी एवं कुछ अन्य स्वयंसेवकों के साथ वार्ता करते हुए कुल्ला कर धो रहे महात्मा गांधी को दोबारा पानी लेने की आवश्यकता पड़ गई जिससे उनके चेहरे पर क्षमता का भाव दृष्टिगोचर होने लगा,, जिसे देख कर नेहरू जी ने पूछा बापू कोई समस्या है क्या आप परेशान नजर आ रहे हैं। बापू ने कहा आज मैंने पान पानी का ज्यादा उपयोग किया है जो नहीं करना चाहिए था। इस पर नेहरू बोले बापू आप मरुस्थल में नहीं है इलाहाबाद में त्रिवेणी संगम में हैं जहां पानी की कोई कमी नहीं है आप कितने भी पानी का उपयोग कर सकते हैं यहां गंगा यमुना में असीमित जल विद्यमान है। इस पर बापू ने कहा गंगा जमुना किसकी हैं? हमें उनके असीमित जल का प्रयोग करने का अधिकार नहीं है। हमें उनसे उतना ही जल लेना चाहिए जल लेना चाहिए जितनी हमारी आवश्यकता है प्रकृति से अपनी आवश्यकता की न्यूनतम सीमा तक ही सामग्री लेना चाहिए इससे प्रकृति निरंतर पुष्पित पल्लवित होती रहती है यदि हर व्यक्ति अपनी आवश्यकता से अधिक असीमित संसाधन का उपयोग करता रहे तो एक दिन प्रकृति के अजस्र स्रोत भी समाप्त हो जाएंगे। अतः किसी भी वस्तु का सीमित आवश्यकता से अधिक उपयोग उसका सदुपयोग ना होकर उसका दुरुपयोग है और आज मैंने वह किया है।स्पष्ट है कि महात्मा गांधी प्रगति के संसाधनों का असीमित दोहन कर उन्हें समाप्त करने के पक्ष में ना होकर हर तरह से उसका संरक्षण एवं संवर्धन करने के पक्ष में थे तथा निरंतर इस दिशा में कार्य करते रहते थे।
महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तिका' की टू हेल्थ' ( आरोग्य की कुंजी ) मे कहा है कि जीवन के लिए पानी अत्यंत महत्वपूर्ण है ,वह इतना आवश्यक है कि ईश्वर ने हमें खूब पानी दिया है। बिना पानी की मरुभूमि में मनुष्य  बस नहीं सकता ।।सहारा के रेगिस्तान जैसे प्रदेश में बस्ती दिखाई ही नहीं देती ।हमारी पृथ्वी का 70% भाग जल आच्छादित है किंतु उसमें पीने योग्य पानी मात्र 1% है जिस पर समस्त विश्व की आबादी निर्भर करती है। पीने का पानी हमेशा शुद्ध होना चाहिए बहुत जगह पानी स्वच्छ नहीं होता ।कुएं का पानी पीने में हमेशा खतरा रहता है। कम गहरे कुएं और बावड़ी का पानी पीने लायक नहीं होता ।दुख की बात यह है कि हम देखकर या चखकर यह नहीं कह सकते कि पानी पीने लायक है या नहीं ।देखने में और चखने में जो पानी अच्छा लगता है तो वह दरअसल जहरीला भी हो सकता है ।इसलिए अनजाने घर या अनजाने कुएं का पानी ना पीने की प्रथा का पालन करना अच्छा है। बंगाल में तालाब होते हैं, उनका पानी अक्सर पीने लायक नहीं होता ।बड़ी नदियों का पानी भी पीने के लायक नहीं होता ,खास करके जहां नदी बस्ती के पास से गुजरती है और जहां उसमें स्टीमर और नावें आया जाया करती हैं, ऐसा होते हुए भी यह सच्ची बात है कि मनुष्य इसी प्रकार का पानी पीकर गुजारा करते हैं । ऐसा होते हुए भी यह अनुकरण योग्य बात नहीं है। कुदरत ने मनुष्य को जीवन शक्ति काफी बड़ी मात्रा में उपलब्ध कराई है अन्यथा मनुष्य जाति अपनी भूलों और अपने अतिरेक के कारण कभी लुप्त हो गई होती ।जहां पानी की शुद्धता के विषय में शंका हो वहां पानी उबालकर पीना चाहिए ,इसका अर्थ यह है कि मनुष्य को अपने पीने का पानी साथ लेकर घूमना चाहिए। पानी को छानने का रिवाज तारीफ करने लायक है इससे पानी में रहा कचरा निकल जाता है लेकिन पानी में रहे सूक्ष्मजंतु नहीं निकलते उनका नाश करने के लिए पानी को उबालना ही चाहिए। छानने का कपड़ा हमेशा साफ होना चाहिए और उसमें छेद नहीं होना चाहिए।


महात्मा गांधी के ऊपर विचारों से स्पष्ट है वह देश की जल समस्या से परिचित थे तथा भविष्य में होने वाले उसके प्रकोप की आशंका उन्हें पूर्व में ही थी अलका उन्होंने जल संरक्षण भूगर्भ जल संवर्धन एवं शुद्ध पेयजल की उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु निरंतर कार्य करने को प्रेरित करते थे। आज विकास की पहचान बने बड़े बांधों के वह पक्षधर नहीं थे उनका मानना था कि बड़े बांधों का निर्माण प्रकृति के साथ छेड़छाड़ है जिसे प्रकृति लंबे समय तक बर्दाश्त नहीं कर सकती और उसका खामियाजा समाज को भुगतना ही पड़ेगा। जिसे हम आज व्यवहार में परिणत होते हुए देख रहे हैं बड़े बांधों के प्रभाव से नदियों का जल उन में संग्रहित होता है किंतु अकाल एवं सूखे की स्थिति में गूगल के जल के साथ साथ जल स्रोतों काजल सूखने पर इन बांधों का भी जलस्तर न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाता है और वह भी सूखने के कगार पर पहुंच जाते हैं फलक तक आवश्यकता पड़ने पर उनका कोई उपयोग नहीं हो पाता किंतु वर्षा ऋतु में बारिश अधिक हो जाने पर जब नदियों में अत्यधिक बाढ़ होती है तब यह बांध पानी से लबालब भर जाते हैं और बाढ़ की विभीषिका के समय उफनाती नदियों में इन बांधों का पानी छोड़कर नदियों के आक्रोश को बढ़ा दिया जाता है जिससे वह अपने तटबंधों को तोड़ती हुई अपार जन धन की हानि करती हैं। बड़े बड़े बांधों का यद्यपि अपना उपयोग है किंतु समय समय पर उनका विनाशकारी स्वरूप भी देखने को मिल जाता है। गत वर्ष केरल में आई हुई बाढ़ इस वर्ष मुंबई एवं पटना में आई बाढ़ रोंगटे खड़ा कर देती है। निश्चित रूप से नदियों की यह बाढ़ एवं शहरों में बढ़ा हुआ पानी का  जलस्तर पानी की निकासी की व्यवस्था न होने तथा प्रकृति के साथ अनियमित तथा असीमित छेड़छाड़ का ही परिणाम है जिसको हमें भुगतना पड़ रहा है ।समय रहते यदि इस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो इसके गंभीर परिणाम हमें भुगतने होंगे।
‌आज देश के अनेक भागों में जल की अनुपलब्धता के कारण आंदोलन और संघर्ष हो रहे हैं।दक्षिण भारत के चेन्नई से लेकर उत्तर भारत के अनेक शहरों में पेयजल की समस्या मुंह बाए खड़ी है। देश के लगभग 70% घरों में शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं है ।लोग प्रदूषित पानी पीने के लिए बाध्य हैं,जिसके चलते लगभग 4 करोड़ लोग प्रतिवर्ष प्रदूषित पानी पीने से बीमार होते हैं तथा लगभग 6 करोड लोग फ्लोराइड युक्त पानी पीने के लिए विवश हैं। उन्हें पीने के लिए शुद्ध जल उपलब्ध नहीं है। देश में प्रतिवर्ष लगभग 4000 अरब घन मीटर पानी वर्षा के जल के रूप में प्राप्त होता है किंतु उसका लगभग 8% पानी ही हम संरक्षित कर पाते हैं, शेष पानी नदियों ,नालों के माध्यम से बहकर समुद्र में चला जाता है।  हमारी सांस्कृतिक परंपरा में वर्षा के जल को संरक्षित करने पर विशेष ध्यान दिया गया था, जिसके चलते स्थान स्थान पर पोखर ,तालाब, बावड़ी, कुआं आदि निर्मित कराए जाते थे , जिनमें वर्षा का जल एकत्र होता था तथा वह वर्ष भर जीव-जंतुओं सहित मनुष्यों के लिए भी उपलब्ध होता था,  किंतु वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर इन्हें संरक्षण न दिए जाने के कारण अब तक लगभग 4500 नदियां तथा 20000 तालाब झील आदि सूख गई हैं तथा वह भू माफिया के अवैध कब्जे का शिकार होकर अपना अस्तित्व गंवा रहे हैं।
आज आवश्यकता है कि हम अपने जल संचयन की क्षमता को बढ़ाते हुए वर्षा के अधिकाधिक / समस्त जल को संरक्षित करें तथा वर्षा जल की एक बूंद को भी व्यर्थ में बहने न दें ,तभी हमारा प्रयास सार्थक होगा और जल समस्या से मुक्ति मिलेगी अन्यथा भयंकर परिणाम सामने होंगे। हमारा यही आचरण और कार्य राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के लिए सच्ची  श्रद्धांजलि होगी।


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