जीनोमिक्स की सहायता से चना की दो बेहतर किस्मे विकसित

नई दिल्ली


भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की अखिल भारतीय समन्वित चना अनुसंधान परियोजना ने हाल ही में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय, रांची (झारखंड) में आयोजित अपने 24वें वार्षिक समूह बैठक में जीनोमिक्स की सहायता से विकसित चना की दो बेहतर क़िस्मों की पहचान की है। इन किस्मों का नाम “पूसा चिकपी 10216” और “सुपर एनेगरी -1” है, जिसे क्रमशः आईसीएआर- भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईसीएआर-आईएआरआई), नई दिल्ली और यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइन्सेस- रायचूर (यूएएस-रायचूर), कर्नाटक द्वारा इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर सेमी एरिड ट्रोपिक्स (आईसीआरआईएसएटी), हैदराबाद के सहयोग से जीनोमिक हस्तक्षेप के माध्यम से प्रजनित कर, जिसे आणविक प्रजनन भी कहते हैं, विकसित किया गया है।  


डॉ त्रिलोचन महापात्र, महानिदेशक, आईसीएआर और सचिव, कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग (डीएआरई), भारत सरकार ने चना के इन दो नई किस्मों की पहचान होने पर कहा कि "यह आईसीएआर संस्थानों, राज्य कृषि विश्वविद्यालयों और आईसीआरआईएसएटी जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन के सहयोग की सफलता की कहानी है"।  उन्होंने आगे कहा कि, "प्रजनन में इस तरह के जीनोमिक्स हस्तक्षेप से जलवायु परिवर्तन से प्रेरित विभिन्न प्रकार के तनावों से पार पाते हुए चना जैसे दलहनी फसलों की उत्पादकता में वांछित वृद्धि होगी। आईसीएआर ने प्रजनन की इस नई रणनीति को अपनाते हुए कई अन्य फसलों में 24 उच्च पैदावार और गुणों वाली नई किस्में विकसित की हैं।  वर्तमान समय में इसी रणनीति से चना में नई उच्च पैदावार देने वाली किस्मों के विकास पर ध्यान केंद्रित करने से देश में दलहन उत्पादन और उत्पादकता में आवश्यक बढ़ोतरी की उम्मीद है"।


आईसीआरआईएसएटी, हैदराबाद के महानिदेशक डॉ पीटर कारबेरी ने कहा कि "हम चना के उन्नत किस्मों के रूप में आईसीएआर, यूएएस-आर और आईसीआरआईएसएटी के आपसी सहयोग को फलीभूत होते को देखकर बहुत उत्साहित हैं"। उन्होंने आगे कहा कि, "मुझे यकीन है कि हमारे आईसीआरआईएसएटी के भागीदारों के साथ ऐसे सहयोगात्मक प्रयासों से न केवल भारत में बल्कि उप-सहारा अफ्रीका में भी छोटे किसानों को फायदा होगा"।


"पूसा चिकपी 10216"



  • "पूसा चिकपी 10216" चना की एक "सूखा सहिष्णु" किस्म है, जिसे आईसीएआर-आईएआरआई (पूसा संस्थान), नई दिल्ली के डॉ भारद्वाज चेल्लापिला के नेतृत्व में "चिकपी ब्रीडिंग एंड मोलेकुलर ब्रीडिंग टीम" द्वारा आईसीआरआईएसएटी के डॉ राजीव के वार्ष्णेय के नेतृत्व वाली "जीनोमिक्स टीम" के सहयोग से विकसित किया गया है।

  • इस किस्म को "आणविक मार्करों" की मदद से सूखा सहिष्णुता वाली "क्यूटीएल-हॉटस्पॉट" को पहचानने के बाद उसे चना की पुरानी किस्म "पूसा 372" की आनुवंशिक पृष्ठभूमि में डालकर विकसित किया गया है।

  • "पूसा 372" देश के मध्य क्षेत्र, उत्तर-पूर्व मैदानी क्षेत्र और उत्तर-पश्चिम मैदानी क्षेत्र में उगाया जाने वाली चना की एक प्रमुख किस्म है, जिसका उपयोग लंबे समय से देर से बोई जाने वाली स्थितियों के लिए राष्ट्रीय परीक्षणों में मापक के रूप में किया जाता रहा है।

  • कालांतर में चूंकि "पूसा 372" का उत्पादन कम हो गया इसलिए इसको प्रतिस्थापित करने के लिए, डॉ राजीव वार्ष्णेय और उनके सहयोगियों द्वारा वर्ष 2014 में चना के आईसीसी 4958 किस्म में "सूखा सहिष्णुता" के लिए पहचाने गए जीन युक्त "क्यूटीएल-हॉटस्पॉट" को आणविक प्रजनन विधि से "पूसा 372" के आनुवंशिक पृष्ठभूमि में डालकर "पूसा चिकपी 10216" को विकसित किया गया है।

  • नई किस्म की औसत पैदावार 1447 किग्रा प्रति हेक्टेयर है। नमी की कम उपलब्धता की स्थिति में यह किस्म "पूसा 372" से लगभग 11.9% अधिक पैदावार देती है।

  • "पूसा चिकपी 10216" के पकने की औसत अवधि 110 दिन है, दानों का रंग उत्कृष्ट है और इसके100  बीजों का वजन लगभग 22.2 ग्राम होता है।

  • चना के प्रमुख रोगों यथा फुसैरियम विल्ट, सूखी जड़ सड़ांध और स्टंट के लिए यह किस्म मध्यम रूप से प्रतिरोधी है।

  • नई किस्म को मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में खेती के लिए चिन्हित किया गया है।


 


इस सफलता पर खुशी व्यक्त करते हुए पूसा संस्थान नई दिल्ली के डॉ भारद्वाज चेल्लापिला ने कहा कि "पूसा चिकपी 10216, भारतवर्ष में चना की वाणिज्यिक खेती के लिए पहचानी जाने वाली सूखा सहिष्णुता युक्त पहली आणविक प्रजनन किस्म बन गई है"।


सुपर एनेगरी-1



  • चना के इस नई किस्म को यूएएस, रायचूर कर्नाटक के डॉ लक्ष्मण और डॉ डी एम मन्नूर तथा आईसीआरआईएसएटी, हैदराबाद के डॉ राजीव के वार्ष्णेय और डॉ महेंद्र ने विकसित किया है।

  • इस किस्म को चना के "डब्लूआर 315" किस्म में "फुसैरियम विल्ट" रोग के लिए पहचाने गए प्रतिरोधी जीनों को आणविक प्रजनन विधि से कर्नाटक राज्य की प्रमुख किन्तु पुरानी चना किस्म "एनेगरी-1" की आनुवांशिक पृष्ठभूमि में डालकर विकसित किया गया है।

  • "सुपर एनेगरी-1" की औसत पैदावार 1898 किग्रा प्रति हेक्टेयर है और यह "एनेगरी-1" से लगभग 7% अधिक पैदावार देती है। इसके 100  बीजों का वजन लगभग 18 से 20  ग्राम तक होता है।

  • यह किस्म 95 से 110 दिनों में पककर तैयार हो जाती है और दक्षिण भारत में चना के सबसे महत्वपूर्ण रोग "फुसैरियम विल्ट" के लिए उच्च प्रतिरोधी है।

  • नई किस्म को आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात में खेती के लिए चिन्हित किया गया है।


यूएएस-रायचूर के डॉ लक्ष्मण ने "सुपर एनेगरी-1" के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा, "सुपर एनेगरी-1" किस्म को किसान तेजी से अपनाएंगे और कर्नाटक राज्य में चने के उत्पादन को बढ़ाने में यह महत्वपूर्ण योगदान देगा"।


आईसीआरआईएसएटी, हैदराबाद के अनुसंधान कार्यक्रम निदेशक और जीनोमिक्स अनुसंधान दल के नेता डॉ राजीव के वार्ष्णेय तथा उनके सहयोगी डॉ टी महेंदर, डॉ मनीष रुड़कीवाल और अन्य ने चना के इन दो नई क़िस्मों के विकास के लिए आवश्यक जीनोमिक्स पोषित प्रजनन कार्यक्रमों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। डॉ वार्ष्णेय ने कहा कि "कुछ समय पहले तक चना को एक अनाथ फसल कहा जाता था, लेकिन, कई अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय भागीदारों के बीच सहयोग और तालमेल के परिणामस्वरूप, "जीनोमिक्स अनुसंधान" का फल चना के किसानों के खेतों में देखना अब संभव हो गया है”।


भारत में दालों के अनुसंधान के समन्वय के लिए कानपुर स्थित आईसीएआर-इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पल्स रिसर्च (आईसीएआर-आईआईपीआर) के निदेशक डॉ एनपी सिंह ने कहा, “आईसीआरआईएसएटी के साथ मिलकर हमने कई साल पहले प्रजनन कार्यक्रमों में "जीनोमिक्स अनुसंधान" एकीकरण का कार्य शुरू किया था और हम भारत में चना के पहले "आणविक प्रजनन उत्पादों" को देखकर खुश हैं”।


अखिल भारतीय समन्वित चना अनुसंधान परियोजना के समन्वयक डॉ जीपी दीक्षित, जो भारत में विभिन्न स्थानों पर इन नई किस्मों के परीक्षण के लिए जिम्मेदार रहे हैं, उनकी परियोजना से निकलने वाले पहले "आणविक प्रजनन उत्पादों" को देखकर बहुत उत्साहित हैं। उन्होने कहा कि      "अखिल भारतीय समन्वित चना अनुसंधान परियोजना भारतवर्ष के दलहनी फसलों में वाणिज्यिक खेती के लिए "आणविक प्रजनन उत्पादों" की पहचान करने वाली पहली अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना बन गई है"।


 


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